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नोप-कुसुम और सिन्थुवार को पंजरियों उरस देती। केशों पर, हस्ति-बनों से मिलनेवाले गज-मोती की एकाध माला अथवा फूलों का मुकुट बनाकर बांध देती है। सारा सिंगार हो जाने पर वह अंजना का लिलार सँघकर दुलार के आवेग में उसे चूम लेतो। तब चाहकर भी उससे बोला न जाता, मन उसका भर आता। केवल अंजना की ओर देख अन्तर के धन और प्रच्छन्न स्नह से मुसकरा भर देती।।
...और सुहागिनी अंजना भावी मातृत्व के गम्भोर आविर्भाव से नम्रीभूत हो जाती। सिंगार-प्रसाधन अंजना की प्रकृति में कभी नहीं था, और आज तो वह उसे सर्वथा असह्य था। पर 'भीतर-ही-भीतर वह समझ रही थी कि यह सिंगार अंजना से अधिक, उस अनागत अतिथि के स्वागत में उसकी माता का है। तब उसकी सदा की निरी बालिका प्रकृति उस मातृत्व के बोध ले आच्छन्न होकर जैसे क्षण भर में तिरोहित हो जाती। वह नीच्या माथा किये ससंकोच'सब कुछ करा लेती। और तब चली जाती वह अकेली ही अपने प्रपण के पथ पर बन के अन्तःपुरों में। किसी वन्य-सरसी के निस्तब्ध तीर पर, किसी शिलातल पर जा बैठती। उसके स्थिर जल में अनायास अपना प्रतिबिम्ब देख, यह अपने से ही लजा जाती।-बन की शाख-शाख - और पत्ते-पत्ते से वह कौन झौंक उठा है ? अपनी ही छवि नव-नवीन रूप धरकर अपने ही भीतर के रमण में लीलायित है। समर्पण की विहलता जितनी ही अधिक बढ़ती जाती है, रूप की सीमा लय होती जाती है। और तब आ पहुँचता हैं अनन्त विस्मृत का क्षण...
...दूर-दर की कन्दराओं, घाटियों और गिरि-कूटों से मुनि की भविष्यवाणी गूंजती सुनाई पड़ती। और नदी-प्रवाह के किनारे-किनारे चलती अंजना, दूर-दूर के अज्ञात प्रदेशों में भटक जाती है।
ज्यों-ज्यों यह पहाड़ी नर्दी आगे बढ़ती गयी है, तलहटी का प्रदेश अधिकाधिक विस्तृत और रम्य होता गया है। आगे जाकर नदी वृक्षों की संकलता और पाषाणों की बीहड़ता से निकलकर, खले आकाश के नीचे खूब फैलकर बहती है। उसके प्रशस्त ऊमिल बक्ष पर गिरि-मालाएँ अपनी छाया डालती हैं। किनारे उसके विपुल हरियाली और स्निग्ध वनराजियों दूर तक चली गयी हैं।
___ मध्याह्न का सूर्य जब माथे पर तप रहा होता, तब अंजना वनश्री के बीच किसी उन्नत शिला पर आकर लेट जाती। राशि-राशि सौन्दर्य और यौवन से भरी धरणी सुनील महाकाश के आलिंगन में बँधी, एकबारगी ही अंजना की आँखों में झलक उठतो। अनेक रंगों का लहरिया पहने पृथ्वी के चित्र-विचित्र पटल दूर-दूर तक फैले हैं, और उनमें धुंधली होती वृक्षावलियाँ टीख पड़ती हैं। दोनों ओर दिगन्त के छोरों तक चली गयी हैं ये शृंग-लेखाएँ। और इस सबके बीच नाना भंगों में अंग तोड़ती अजस्र चली गयी है यह नदी की सुनील धारा। अंजना का सारा अन्तःकरण इस नदो की लहरों में नाचता चला जाता है : वहाँ-जहाँ एक गहरी नीली धुन्ध के
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