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सन्तप्त मानवियों की आर्त पुकार से मुनि की समाधि भंग हुई। ब्रह्मतेज केन्द्र से बिखरकर सर्वोन्मुख हो गया। निखिल लोक की वेदना से मुनि की आत्मा संवेदित हो उठी। श्वासोच्छ्वास मुक्त हो गया। समता की वह ध्रुव दृष्टि, एक प्रोज्ज्वल, प्रवाही शान्ति से भरकर खुल उठी। मुनि ने प्रबोधन का हाथ उठाकर मेघ-मन्द्र त्वर में कहा
"शान्त पुत्रियो, शान्त, धर्म-लाभ, कल्याणमस्तु!" दोनों बहनों ने अनुभव किया कि जैसे अमृत की एक धारा-सी उन पर बरस पड़ी है। सारे ताप-क्लेश, पौड़ाएँ, आघात एकबारगी ही इन चरणों में निर्वापित हो गये हैं।
तब वसन्त उठी और दोनों हाथ जोड़ सकरुण कण्ट से आवेदन किया
"हे योगीश्वर, हे कल्याण-रूप, हे प्राणि मात्र के अकारण बन्धु, हम तुम्हारी शरण हैं। रक्षा करो, त्राण करो नाथ! मनुष्य की जगती में हमारे लिए स्थान नहीं है। मेरी यह बहन गर्भिणी है। मिथ्या कलंक लगाकर श्वसुर-गृह और पितृ-गृह से करा दी गयी है। इसके संकटों का पार नहीं है। इसका त्रास अब मुझसे नहीं सहा जाता है, प्रमो! मौत के मुँह में भी हम अभागिनों को स्थान नहीं मिला। इस आत्म-घातक यन्त्रणा से में मुक्त करो, देव-और यह भी बताजो भगवन् कि इसके गर्भ में ऐसा कौन पापी जीव आया है, जिसके कारण इसे ऐसे घोर उपसर्ग हो रहे है।"
मुनि अधि-ज्ञानी थे और चारण-ऋद्धि के स्वामी थे। अनिमीलित दृष्टि में मुनि ने अवधि बाँधी और मुसकराकर वत्सल कण्ठ से बोले
"कल्याणी, शोक न करो। महेन्द्रपुर की राजकुमारी अंजना लोक की सतियों में शिरोमणि है। विश्व की किसी भी शक्ति के सम्मुख, अंजना त्राण और दया की भिखारिणी नहीं हो सकती। पूर्व संचित पापों की तीव्र ज्वालाओं ने चारों ओर से उसे आक्रान्त कर लिया है। पर उनके बीच भी निर्वेद और अजर शान्ति धरकर वह चल रही है। और इसके गर्भ का जीव पापी नहीं है, वह अप्रतिम पुण्य का स्वामी, लोक का शलाका-पुरुष होगा! वह ब्रह्म-तेज का अधिकारी होमा । काम-कमार का भुवन-मोहन रूप लेकर यह पृथ्वी पर जन्म धारण करेगा। वह अखण्डवीर्य बाहुबलि होकर समस्त लोक का हृदय जीतेगा। देवों, इन्द्रों और अहमिन्द्रों से भी वह अजेय होगा। विश्व की सारी विभूतियों का प्रभोक्ता होकर भी, एक दिन उन्हें ठुकराकर वह वन की राह पकड़ेगा। इस जन्म के बाद वह जन्म धारण नहीं करेगा--इसी देह को त्यागकर वह अविनाशी पद का प्रभु होगा-अस्तु!"
वसन्त ने फिर जिज्ञासा की
भऐसे प्रबल पुण्य का अधिकारी होकर वह जीव अपने गर्भकाल में अपनी माँ को ऐसे दारुण कष्ट देकर, आप भी ऐसी यातना क्यों झेल रहा है, भगवन् ?"
"कर्मों की लीला विचित्र है, देवि! अपने विगत की दुर्धर्ष कर्म-शृंखलाओं से
168 :: मुक्तिदूत