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"कहीं नहीं जाऊँगी, बहन, तुम्हें छोड़कर... | सच मानना सदा तुम्हारे साथ रहूँगी ।... उधर देखो, के के करपर सख्या उगो हैन अस इसे देखकर रोज मेरी याद कर लेना, मैं तुम्हारे पास आ जाया करूँगी...!"
दोनों लड़कियाँ आश्वस्त और प्रसन्न होकर सामने के गोशाले में दूध दुहने चली गयीं। अंजना और वसन्त भी हास्य-विनोद करती उनके साथ दूध दुहने बैठीं । लड़कियों के आनन्द की सीमा न थी। सकरुण स्नेहल कण्ठ से वे अपनी ग्राम्य भाषा में सन्ध्या के गीत गाने लगीं। उसमें उस अनजान प्रवासी को सम्बोधन है जो ऐसी ही सन्ध्या में एक बार तारों की छाया में, राह किनारे के चम्पक वन में मिल गया था, और फिर लौटकर नहीं आया नहीं आया रे नहीं आया वह अतिथि! ऐसी ही कुछ अन्तहीन थी उस गीत की टेक विसुध और निर्लिप्त करुणा के कण्ठ से समझे- बेसमझे ये लड़कियाँ उस गीत को गाती जा रही हैं। दूर पर ग्राम का कोई एकाकी दीप टिमटिमाता दीख जाता है। अंजना अपने आँसू न रोक सकी और अपने बावजूद वह उन लड़कियों के सुर में सुर मिलाकर गा उठी। वृद्ध पास ही के गाँव में किसी काम से गया था। लौटने पर उसने झोंपड़े के आँगन में चारपाइयाँ डालकर बिछौने बिछा दिये और अतिथियों से आराम करने के लिए अनुनय की । अंजना ने कहा कि उनके सौहार्द की वे बहुत-बहुत कृतज्ञ हैं, पर भूमिशयन ही उन्हें स्वभाव से प्रिय हैं। वृद्ध इस बात के लिए वृथा खेद न करें। बाग़ के बाहर खुली चाँदनी में हो अंजना और वसन्त दुपहर के तोड़े हुए केले के पत्ते बिछाकर हाथ के सिरहाने लेट रहीं ।
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सवेरे ही ब्राह्म मुहूर्त में उठकर, नित्य कर्म से निवृत्त हो अंजना ने वसन्त से
कहा
"अब एक क्षण भी यहाँ रुकना इष्ट नहीं है; बहन । जिन्हें अपनाकर, सदा अपने साथ रखने की शक्ति मुझमें नहीं है, उन्हें ममत्व की मरीचिका में उलझाकर दुःख नहीं देना चाहूँगी। तुरन्त अभी यहाँ से चल देना है। बिछोह का आघात पीछे छोड़कर जाना मुझसे न बनेगा। इस ब्राह्मवेला में, प्रभु से मेरी यही विनती है कि वह मुझे ऐसी शक्ति दे कि मैं सदा के लिए इन सोयी हुई निरीह बालाओं की हो सकूँ मैं सदा इनके साथ रह सकूँ !"
चलने से पहले पास जाकर दोनों सोबी लड़कियों के लिर अंजना ने दूर से ही सूंघ लिये। फिर चुपचाप एक ओर सोये वृद्ध को जगाकर विदा माँगी । वृद्ध के विवश स्नेहानुरोध का अंजना ने यही उत्तर दिया कि प्रभु हम सबके सर्वदा साथ हैं, फिर हम अलग-अलग कहाँ हैं, उसी मंगल कल्याणमय के प्रेम में अनेक जन्मों में अनेक बार मिले हैं, और फिर मिलेंगे... !
और दोनों बहनें चल दीं अपने पथ पर |
ज्यों-ज्यों आगे बढ़ती जाती हैं, आँखों के सामने क्षितिज की रेखा धुँधली होती
1.54 : मुक्तिदूत