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का धीरज अय नहीं है। पुकार प्रागों को बींध रही है। विलम्ब न करो, मिलन की। लग्न-बेला दल नाणी ..."
"पर अंजन, कहाँ चल रही हो? यहाँ रास्ता तो नहीं दीख रहा है...?"
विना उत्तर दिये ही अंजना उठ बैठो और वसन्त का हाथ पकड़ उसे खींचती हुई फिर बढ़ गयी-उसी झंखाड़ों से घिरी बन की विजन बाट में।
दोपहरी का प्रखर सुर्य जब ठीक माथे पर तप रहा था. तब ये उस खजर-वन को पार कर खुले आकाश के नीचे आ गयीं। सामने से चली गयी है वन्य-नदी की रेखा। रुपहली बालू की स्निग्ध उपल-सेज में, जल की धारा लीन होती-सी लौट रही है। दूर-दूर तक सुषम बनश्री को चीरती हुई, नाना भंग बनाती, कहीं-कहीं वन के गहन अंक में जाकर वह खो जाती है। आगे जाकर धारा पृथुल हो गयी है, और बनच्छाया से कहीं श्याम, कहीं जामुनी और कहीं पीली होती दीख पड़ती है। पुलिनों में लहलहाती कास में शरत् की श्री खिलखिला रही है।
रुककर अंजना बड़ी देर तक, दूर जहाँ नदी के अन्तिम भंग की रेखा खो गयी है, दृष्टि गड़ाये रही, फिर वसन्त के गले में हाथ डालकर बोली
"कैसी कोमल, उजली और स्निग्ध है यह पथ की रेखा, जीजी! बन के इस आँचल में यह छुपी है, पर कितने लोग इसे जानते हैं? किस अज्ञात पर्वत की बालिका है यह नदी? अनेक विजनों की जड़ीभूत रुद्धता में से, जल की इस धारा ने अपना पथ बनाया है! और पीछे छोड़ गयी है पथिकों के लिए विश्राम की मृदुल शय्या। अबरोध है, इसी से तो मार्ग का अनुरोध है। अवरोधों को भेदकर हो वह खलेगा। मार्ग की रेखाएँ पृथ्वी में पहले ही से खिंची हुई नहीं हैं। जीवनी-शक्ति सतत गतिमान् है- मनुष्य चल रहा है कि मार्ग बनता गया है। पहले कोई चला है, तभी वह बना है। आदि दिन से वह नहीं था..."
नदी की धारा को पार कर, आगे जाने पर उन्हें सल्लकी लता के मण्डपों से घिरी एक वन्य-सरसी दीख पड़ी। उसके बीच के जमिल जल में शरद के उजले बादलों का प्रतिबिम्ब पड़ रहा है, और सटों में धनी शीतल छाया है। लता-मण्डप में हथिनियों का एक यूथ, सल्लकी की गन्ध में मस्त होकर झूम रहा है। पास आने पर दीखा, सामने के तट की एक शिला पर एक जरठ-जीर्ण भीलनी नहा रही है। सारे बाल उसके सफ़ेद हो गये हैं। अपने काले शरीर पर दोनों हाथों से मिट्टी मल-मल कर वह उसे स्वच्छ कर रही है।
अंजना ने कौतूहल से उसे देखा, फिर हँस आयी और दोनों हाथ जोड़ उसे प्रणाम किया । भीलनी के मिट्टी में भरे हाथ अधर में उठे रह गये । वह नहाना भूलकर उस पार आश्चर्य से देखती रह गयी। उसकी पुरातन गरदन बरगद-सी हिल उठी। इस जंगल में युग-युग उसने बिता दिये हैं, कई चमत्कार उसने देखे-सुने हैं, पर रूप की ऐसी माया कभी न देखी!
THHI : मुक्निदूत