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चिरौंजी - वृक्ष की शाखा में दो-तीन नीली और पोली चिड़ियाँ 'कीर-कीर' 'टीर-टीर' प्रभाती गा उठती हैं ।
अंजना जैसे अवचेतन के अँधेरे द्वारों को पार करती चल रही थी। पंखियों का प्रभात गान सुन उसकी तन्द्रा टूटी। ऊपर हिलते हुए पत्रों में आकाश की शुचि नीलिमा रह-रहकर झाँक उठती है। मुसकराकर कौन अनिन्द्य, कान्त, युवा मुख आँखमिचौली खेल रहा है। उसे पकड़ पाने को उसके मन-प्राण एकबारगी हो उतावले हो उठे ।... पर चारों ओर रच दी है उसने यह भूल-भुलैया की माया । जिधर जाती हैं उधर ही संकुल और भयावह झाड़-झंखाड़ों से राह रुँधी है। पैरों तले को धरती बहुत विषम और ऊबड़-खाबड़ है। ढेर-ढेर जीर्ण पत्तों से भरे तल देश में पैर धँस-धँस जाते हैं। भूशायी कटीली शाखाओं के जालों में पर उलझ जाते हैं। सैकड़ों सूक्ष्म काँटे एक साथ पगतलियों में बिंध जाते हैं। लड़खड़ाती, पेड़ों के तनों से धक्के खाती, एक-दूसरी को थामती दोनों बहनें चल रही हैं। पैर कहाँ पड़ रहे हैं उसका भान ही भूल गया है। अरे! इस मायावी की भूल भुलैया का तो अन्त ही नहीं है। हाथ पर ताली बजाकर वह भाग जाता है ।-अंजना शून्य में हाथ फैला देती है। पर वहाँ कोई नहीं दिखाई पड़ता। चारों ओर उगी घास और संकुल झाड़ियों में डूबती-उतराती वह बढ़ती ही जाती है। चलते-चलते गति का वेग अदम्ब हो उठा है। अंजना के पीछे उसके कन्धों और कमर को हाथ से थामे वसन्त चल रही है। पर गति के इस वेग को थामने की शक्ति उसमें नहीं है। इस वात्या-चक्र में एक धूलिकण वा तिनके की तरह वह भी उड़ी जा रही है।
... पत्तों के हरियाले वितान में अंजना को उस युवा के उड़ते हुए वसन का आभास होता हैं...। आसपास से शरीर को छूता हुआ वह प्राणों को एक मोह को उन्मादक गन्ध से आकुल व्याकुल कर जाता है।...मुँदी आँखों, वे शून्य में फैली हुई 'भुजाएँ उसे बाँध लेना चाहती हैं। वह हरियाला कोमल पट हाथ नहीं आता। केवल कटीली शाखाओं के काँटे वृक्ष में बिंध जाते हैं। खजूरों के उन असंख्य, काले, कुरूप तनों की सरणि में, वह पुसकराहट और वह किरीट की आभा झाँककर ओझल हो जाती है। अंजना झपटती है। किसी एक खजूर के तने से जाकर टकरा जाती हैं। शून्य की थको भुजाएँ विह्वल होकर उस तने को आलिंगनपाश में बाँध लेती हैं। प्यार के उन्मेष में उस कटीली छाल पर वह लिलार और कपोलों से रभस करती हुई बेसुध हो जाती है। मानो उस समूची परुषता और प्रहारकता को अपनी कोमलता में समाकर वह निःशेष कर देना चाहती हैं। वसन्त उसे पीछे से खींचकर उसकी पीठ को अपनी छाती से लगाये रखने के सिवा और कुछ भी नहीं कर पाती है। भीतर रुदन और चीत्कारें गुंगला रही हैं। चारों ओर से चोट पर चोट, आधात पर आघात लग रहा है। एक आघात की वेदना अनुभव हो, उसके पहले ही दूसरा प्रहार कहीं से होता है। पैर किसी गड्ढे में भैंस रहा है, निकल पाना मुश्किल हो गया
LTH: मुक्तिदूत