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ऐसी
कृतघ्न मैं नहीं हो सकूँगी। इसी से तो अब तक की यात्रा में, निधड़क उनके द्वार जाकर विश्राम खोजा है। पर देखती हूँ कि उनके बीच रहने की पात्रता भी अब मेरी नहीं है। वे भी तो एक लोकालय के और लोकसमाज के अंग हैं। उनके भी अपने कुल - शील- मर्यादा के नीति-नियम । मेरा उनके बीच यों जाकर बस जाना, उनके भी तो लोकाचार की मर्यादा को चोट ही पहुँचाएगा। एक पूरे समाज की शान्ति को भंग कर, यदि उन्हें देने को समाधान का कोई उत्तर मेरे पास नहीं है, तो वहाँ मैं एक बहुत बड़े असत्य और लोक घात की अपराधिनी बनूँगी । - तुम्हीं बताओ जीजी, यह सब मैं कैसे कर लूँ? देख नहीं रही हो, जिस तरह के चर्चाएँ ग्राम जनों के बीच चल पड़ी हैं- चलने के दिन ही तुमसे कह चुकी थीं कि वन के सिवा और बास मेरे लिए इस समय कहीं भी नहीं है। राह के ये विश्राम तो सहज आनुषंगिक ही थे। मनुष्य के प्रेम का पाथेय विषद की राह के लिए जुटा लेने की इच्छा थी। वह प्रसाद पा गयी हूँ- अब चल देना होगा जीजी...'
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वसन्त ने बार-बार अनुभव किया है कि अंजना तर्क की वाणी नहीं बोलती है। आत्म-वेदना का यह सहज निवेदन, सुननेवाले के मन पर अग्नि के अक्षरों में स्थलित हो उठता है । उस पर क्या वितर्क हो सकता है? वसन्त चुप हो गयी। अगले सबेरे के आलोक से भर आते अँधेरे में, उन्होंने पगडण्डियों छोड़कर वन की राह पकड़ी - अनिश्चित और रेखाहीन...!
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दिन का उजाला जब झाँकने लगा था तब उन्होंने पाया कि पलाश, बबूल और खजूरों के एक घने वन में चे घुसी जा रही हैं। जहाँ तक दृष्टि जाती है, खजूरों के कटीली छालवाले तने घने होते दीख पड़ते हैं। वन की इस अखण्ड राम्भोर निस्तब्धता में मानो प्रेतों की छाया-सभा अविराम चल रही है। बीच-बीच में सागी और शीशम के बड़े-बड़े पत्तोंवाले वृक्षों की घनी झाड़ियों के प्रतान फैलते ही चले गये हैं । मर्त्य मानव की असंख्य निपीड़ित इच्छाएँ विकराल भूतों-सी एक साथ जैसे भूमि से निकल पड़ी हैं, और अपने ही ऊपर दिन-रात एक मुक व्यंग्य का अट्टहास कर रही हैं। और लगता है कि खजूरों के तने अभी-अभी कुछ बोल उठेंगे, पर वे बोलते कुछ नहीं हैं। निस्तब्धता और भी यनी हो उठती है। और वही मूक आक्रन्द-भरा हास्य दूर-दूर तक और भी तीखा होता सुनाई पड़ता है। मलय और सल्लकी की गन्ध से भरा प्रभात का शीतल पवन डोल- डोल उठता है। पलाश, सागी और शीशम के प्रतान हहरा उठते हैं। बनानी के प्राण में सुदीर्घ व्यथा का एक उच्छ्रवास खरसरा जाता I सृष्टि के हृदय का करुण संगीत नाना सुरों में रह-रहकर बज उठता है और
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