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का कोई परिचय नहीं पूछ। केवल अपने अतिथियों को उसने दोनों हाथ जोड़, बात ही विनीत और गद्गद होकर प्रणाम किया। स्नेह की मौन और स्निग्ध आँखों से हो, उसने अपनी भेंट की स्वीकृति पाकर कृतार्थ होने की याचना की।
दोनों बहनों ने सिर नवाकर वृद्ध का अभिवादन किया । आनन्द और विस्मय से पुलकित होकर अंजना बोली
"बाबा, चोर की तरह तुम्हारे घर में हम दोनों घुस बैठी हैं। हमारी उद्दण्डता को क्षमा कर देना।"
वृद्ध फिर हाथ जोड़कर नम हो आया। वह बोला
"बड़े भाग्य हैं देवी हमारे! सौभाग्य का सूरज उगा है आज, जो सबेरे ही आँगन में आकर अतिथि देवता की तरह विराजे हैं। यह भूमि धन्य हुई है तुम्हें पाकर । दीन कृषक का यह तुच्छ फलाहार स्वीकार कर, उसे कृतार्थ करो, भदे!"
अंजना के मन में कोई दुविधा नहीं थी। उसने बसन्त की ओर देखा। वसन्त सप्रश्न आँखों से अंजना की ओर देख रही थी। स्पष्ट ही उस दृष्टि में हिचक थी।
"संकोच का कोई कारण नहीं है, जीजी। इन भूमि-पुत्रों के दान को लेने से इनकार कर सकें, इतने बड़े हम नहीं हैं। मुंह मोड़कर जीने का अभिमान मिथ्या है। धरित्री-माता ने हमें जन्म दिया है, तो हमें जीवन-दान देने वाले जनक और पोषक हैं ये कृषक। ले लो जीजी, दुविधा न करो-"
फिर कृषक की और देखकर बोली
"बिना हमारी पात्रता जाने, हमें भिक्षा ले सकने की पात्री तुमने बना दिया है, यावा- । जीवन कृतकार्य हुआ है तुम्हारे दान से-।"
भइतना बड़ा भार हम दोनों पर न डालो आर्ये, हम तो तुम्हारे सेवक मात्र
कहकर प्रसन्न होता हुआ वृद्ध, अतिथिचर्या के दूसरे प्रबन्धों के लिए व्यस्त-सा होकर, झोंपड़े की ओर चल दिया। झोंपड़े के दूसरी ओर के छायाबान में रस निकालने की चरखियों को जोर-जोर से धमाकर, वे दोनों कन्याएँ द्राक्ष और इक्ष का रस निकाल रही थीं।
क्षोभ और रोष के कारण जो भी हिचक और विरक्ति वसन्त के मन में जरूर थी, पर उसकी अन्तरतम की सबसे बड़ी चिन्ता इस क्षण यही थी, कि वह किसी तरह अंजना को कुछ खिला-पिला सके। उसने तुरन्त केले के पत्ते बिछाकर, कुछ फल और द्राक्ष-गुच्छ उस पर रख लिये और दोनों बहनें खाने लगीं। खाते-खाते बात चल पड़ी तो अंजना ने कहा
“मनुष्य पर अश्रद्धा किये नहीं बनेगा, जीजी। मनुष्य मात्र से रुष्ट होकर, विमुख होकर, हम इस राह नहीं आयी हैं। आयी हैं इसलिए कि अपने बाँध विषम कमों के फल भुगतने में हम अकेली ही रह सकें । अपने उदयागत से औरों के जीवनों
मुक्तिदूत :: 151