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से तुझे चोट लगी है? मुली से छिपाएगो तो मैं बहुत असहाय हो जाऊंगी। तव तो मेरे दुःख का अन्त ही नहीं है। मैं अकेली किसे जाकर अपनी पकार सनाऊँगी।"
___ "व्याकुल न होओ जीजी, पत्थर और मिट्टी की हो गयी हूँ...चोट जेसे अब लगती ही नहीं हैं-"
"पर अभी जो चेहरा मैंने देखा है, उसका त्रास तो मझसे छपा नहीं है-"
अंजना का मुख फिर म्लान हो आया। वह एकटक बाहर के आकाश को देखती रह गयी। कुछ देर रहकर एक मर्माहत स्वर में वह बोली
"हत्यारी हो उठी हूं, जो-ती!...युग-युग की वेदना से सन्तप्त वे मेरे पास आये घे। सख और शान्ति की उन्हें खोज थी। युद्ध से उन्हें ग्लानि हो गयो थी। चिर दिन की बंचना से वे सन्त्रस्त थे। कौन जाने सुख दे सकी या नहीं, पर मैंने उन्हें धक्का दे दिया। जाने किस अगम्य भयानकता के मुँह में मैंने उन्हें ढकेल दिया। उसी क्षण समझ गयी थी कि मृत्यु से भी जूझने में अब ये हिचकेंगे नहीं। केवल मेरे ही कहने से, मेरे ही लिए गये हैं वे मृत्यु से लड़ने-! अपने लिए अब किसी भी विजय की कामना उनके मन में शेष नहीं रही थी। अपनी ही हार को उन्होंने सिर झुकाकर, जयमाला की तरह स्वीकार कर लिया। और उस दिन उन्होंने अपने को धन्य पाना। अपनी सारी महत्ताओं को घूर करके, के केवल अपनी आत्म-वेदना लेकर मेरे पास आये थे।
..पर उनकी हार मुझे सहन न हो सकी। तब मुझमें गौरच का लोभ जागा। उनके पुरुषत्व के आभमान और विजय के अनुसग से मैं भर उठी। में गविणी हो उठी। एक तरह से मैंने ही उन्हें यह कहा कि-'विजेता होकर आओ-' वे हँसते-हँसते उस पथ पर चले गये। विजय को मौंग भी उनसे मेरी छोटी नहीं थी। मन-ही-मन शायद यही तो कह रही थी-'अजात-शत्रु जेता बनकर लौटो!' उस क्षण तो मैं अपनी ही आत्म-गरिमा के सुख में बेसुध थी
"पर ओह जीजी, आज कल्पना कर सकी हूँ, चारों ओर तने हुए असंख्य शत्रुओं के तीरों के बीच मैंने उन्हें ढकेल दिया है। पर लौटकर न देखनेवाले वे, उनके बीच खेलकर भी, मेरी कामना की विजय पाये बिना नहीं लौटेंगे। और उनकी बात सोचे बिना ही, जाने किस सत्य के आग्रह से, मैं अपने ही मार्ग पर चल पड़ी हूँ?-मेरी साध की पूर्ति लेकर, जब वे किसी दिन आशा-भरे लौटेंगे...और मुझे न पाएँगे...तब...? तब उन पर क्या बीतेगी, जीजी...?"
कहती-कहतौ वह वसन्त की गोद में बिलख पड़ी। वसन्त निःशब्द उसे अपने पेट ओर वक्ष से दबाये ले रही थी। इस ऐसी विषम वेदना के लिए, वह क्या कहकर सान्त्वना दे, जिसे वह स्वयं नहीं समझ पा रही है। वह तो केवल उस दुःख की निष्काम सहभोगिनी है। फिर अंजना धीरे से रुलाई-भरे कण्ठ से ही बोली
"पर हाय, उनकं वीरत्व और पुरुषत्व की ही अवमानना कर रही हूँ। क्यों
पुतिदूत :: 149