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एक विस्मृत प्रसन्नता की अर्ध-स्मित में अंजना के होठ खुले। चेहरे की सारी वेदना में एक तेज झलमला उठा। केवल इतना ही निकला उन होठों से
"उनकी आज्ञा मिल गयी हैं, जीजी! चलो के बुला रहे हैं, देर मत करो!"
वसन्त अपने हाथों के सहारे अंजना को लेकर सीढ़ियाँ उतर रही थी। तब फिर एक बार महादेवी गरज उठीं
"जा पापिन, अपने बाप के पर पाकर अपने किसी का प्रागत कर ! तुटो और तेरे पित-कल को यही दण्ड काफ़ी है!"
....देखते-देखते रथ, अन्तःपुर के गुप्त मार्ग से, राजप्रांगण के बाहर हो गया।
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हवा से बातें करता हुआ रथ महेन्द्रपुर के मार्ग पर अग्रसर धा। प्रभात पवन के शीतल स्पर्श से सचेत होकर अंजना ने वसन्त की गोद में आँखें खोली। पथ के दोनों ओर स्निग्ध, श्यामल, घटादार वृक्ष सवेरे को कोमल धूप में दमक रहे हैं। कहीं दूर की अमराइयों से रह-रहकर कोयल की टेर सुनाई पड़ती है। आस-पास खेतों में सरसों फूली है। तिस्सी के नीले फूलों में शोभा की लहरें पड़ रही हैं। दूर-दूर खेतों के किनारे इक्षु के कुंज हैं। कहीं घने पेड़ों के झुरमुट हैं। उनके अन्तराल से गाँव झाँक रहे हैं। आकाश के छोर पर कहीं श्वेत बादलों के शिशु किलक रहे हैं। अंजना की स्थिर आँखें उसी ओर लगी हैं।...भीतर के मुकुलित सौन्दर्य का आमास-सा पाकर वह सिहर आयी। अधरों पर और कपोल-पाली में स्मित की भंवर-सी पढ़ गयी। वेदना
आँखों के किनारे अंजन-सी अँजी रह गयी है, और पुतलियों भावी के एक उज्ज्वल प्रकाश से भरकर दूर तक देख पठी--जैसे क्षितिज के पार देख रही हो...
अपने गाल पर फिरती हुई वसन्त की बैंगलियों को हथेलियों से दबाती हुई अंजना बोली
"क्या सोच रही हो, जीजी?"
"सो क्या पूछने की बात हैं, बहन ?" ___"सी तो समझती हूँ, जीजी, मुझ अभागिनी के कारण तुमको बार-बार अपमान और लांछना झेलनी पड़ रही है। और आज तो पराकाष्ठा ही हो गयी। इसी की ग्लानि मन में सबसे बड़ी है। मेरी राह में यदि विधि ने काँटे ही बिछाये हैं, तो तुम्हें उन पर क्यों घसौदँ। नहीं बहन, यह सब अब मैं और नहीं चलने दूंगी। मुझे मेरी राह पर अकेली ही जाने दो। देखती हूँ कि इस राह का अन्त अभी निकट नहीं है। अब तक जिस तरह चली हूँ और आज भी जो हुआ है, उसे देखते अब मेरी यात्रा सुगम नहीं है। तुम्हें लौट ही जाना चाहिए, जीजी: तुम अपने घर जाओ, तुम्हें
। 30 :: नोकतन्त