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गयी। आंचल में गाँट देते हए और बार-बार शभा का आवेदन करते हु। उसने बान कहना आरम्भ किया
"देव, समझो कि अंजनी ही आँचल पसारकर पिता के सम्मख आची हैं। चाही तो अपनी पुत्री को अपने ही पैरों तले कुचल देना | पर उसे निर्मम दुनिया की होकरों में मत फेंक दना
कहकर उसने अधिक-से-अधिक संयम और अकपट भाव से अंजन का ल-निवेदः, राज के सम्मुख रखा। जहाँ तक उससे बन सका अपने मन की सारी रुलाई को दबाकर भी उसनं अंजना की कठोर फ्यांदा की रक्षा की।
महाराज ने सना तो लगा कि निरभ्र आकाश से वन टूटा हो । संज्ञाशुन्य होकर उन्होंने दोनों हाथों में मुंह डाल दिया। बड़ी देर तक ऐसे ही जड़वत् वे बैठे रह गये। भीतर-भीतर एक दुःसह ज्वालामुखी दहक रहा था। में एकाएक भिंचते स्वर में फूट पड़े :
"हाच प्रकाश, फट पड़ो! पृथ्वी विदीर्ण हो जाओ!--यह सुनने को एक क्षण भी मैं जी नहीं सकूँगा...नहीं...नहीं...नहीं देख सकूँगा...इन आँखों से...नहीं सुन सकूँगा इन कानों से..."
कहते-कहते वे सिहर-सिहर आये। दोनों हाथों से कभी आँख मींचने लगे तो कभी कान मींचने लगे। कुछ देर रहकर फिर उत्तेजित रुदन के स्वर में बोले--
___“आह, अंजन, दोनों कुलों को डुबा दिया तूने!...धिक्कार है मेरा वीर्य... धिक्कार है यह मनुष्य-जन्म! मिथ्या है यह विक्रम और प्रताप...थूल है यह वैभव और अभिमान..."
कहकर कपाल पर उन्होंने हाथ मार लिया । अपने ही आप में धीरे-धीरे रुदन के स्वर में गुनगुनाये
. “सौ पुत्रों के बीच-एक प्राण-पालिता लाइिली बेटी.... आह...अपने ही वीर्य । ने भयंकर नागिन बन, छाती पर चढ़कर...उँस लिया...!"
कहते-कहते दोनों हाथों में जैसे वे अपने उन्नत वक्ष को मलोसने लगे। फिर
बोले
___ "...किस भव का वैर लिया है तूने: बेटी बनकर ऐसा विश्वासघात किया? ...इस बढ़ापे में माँ-बाप को पत्थर की नाव पर फेंक दिया तूने। दूवकर किल नरक में स्थान मिलेगा...।"
...और लोक-निन्दा की तप्त शलाका जैसे राजा के समस्त शरीर से बिंधने लगीं।
"दर हट निलज्जे, सामने से जा... | तुरत तुम दोनों लाकर कहीं डूब मरो! ...मेरी पत्री यदि हैं तो उसे कहना कि अपमा कलौकत मुँह दुनिया को न दिखाती फिरे।...पर, आह, नहीं है वह मेरे उज्ज्वल कल का वीर्य!.अनार्या है वह...कोई प्रतिनी कौतुक करने के लिए मेरे घर जन्मी है।"
1413 :: मश्तिा