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वहीं से उसकी बात सोलहों आने रख लेना, इतनी ही विनती है । हर्ष-शोक, सुख-दुःख, लाभ-अलाभ, मणि-तृण, महल- श्मशान सबमें समभाव धारण कर सकूँ । भूत मात्र सब अपने बान्धव हैं- चारों ओर सब अपने ही तो हैं! अरे क्या है पराया? परायापन इसलिए कि अपनाने की शक्ति जो अपने ही में नहीं है...!"
अंजना ने जब आँखें खोलीं तो रात पड़ चुकी थी। अँधेरा चारों ओर घना हो गया था। नदी का मन्द कल-कल और शून्य में झिल्लियों की झनकार ही सुनाई पड़ती थी। पेड़ अनेक भयानक आकृतियों में खड़े भविष्य की दुर्दृश्य छायालिपि लिख रहे थे ।
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उधर जब वसन्त महेन्द्रपुर में पहुँची तो सायाह्न निबिड़ हो रहा था । राज-प्रांगण में पिछले गुप्त रास्ते से प्रवेश पाने में उसे बड़ी कठिनाई पड़ी । उसे मालुम हुआ कि महाराज इस समय अपने निज महल के विहार- कानन में वायुसेवन को निकले हैं समस्या और कठिन हो गयी। उत्तने पाया कि यहाँ अब वह निरी परदेशिनी ही हो गयी है। इधर कुछ ही वर्षों में यहाँ बहुत बड़ा परिवर्तन हो गया है। सारा राज - ज-परिकर ही अपरिचित-सा लगता है। बड़ी युक्तियों और कठिनाइयों से उसने अनेक राजद्वार पार किये | तब मिल गया उसे एक बहुत पुरातन, परिचित और विश्वासु नृत्य | किसी तरह बिहार कानन में पहुँच ही तो गयी। मर्मर के पच्चीकारीवाले हंस - नौकाकार सिंहासन पर महाराज महेन्द्र विराजे हैं। एक ओर की ऊँनी चौकी पर उनके प्रियतम सामन्त महोत्साह बैठे हैं। दूसरी ओर एक छोटे सिंहासन पर ज्येष्ठ राजपुत्र प्रसन्नकीर्ति बैठे हैं। काँपते पैरों साहसपूर्वक बसन्त महाराज के सम्मुख जा उपस्थित हुई। देखकर तीनों जन आश्चर्य से स्तव्ध हो गये । असमय और बिना सूचना के महाराज के सर्वधा निजी इस बिहार में वह स्त्री कैसे प्रवेश पा गयी है? बात कुछ असाधारण है।
"आर्य जयघोष की पुत्री वसन्तमाला देव - चरणों में अभिवादन करती है !" कहती हुई बसन्त सिंहासन के पाद - प्रान्त में प्रणत हो गयी । नाम सुनकर तीनों ने वसन्त को पहचाना । बसन्त माया झुकायें, गले में आँचल डाले, नांमत दृष्टि से खड़ी रह गयी । महाराज ने पूछा
" कुशल तो हे न शुभे ! अंजना का कुशल संवाद कहो...।" वसन्त ने फिर सारा साहस बटोरकर कहा
“प्रगल्भता क्षमा हो देव, अकेले में कुछ निवेदन करना चाहती हूँ!" महाराज का संकेत पाकर कुमार प्रसन्नकीर्ति और सामन्त महोत्साह उठकर कुछ दूर निकल गये । बसन्त पास जाकर पादपोत्र के पास घटनों के बल बैठ
मुक्तिदृत: ॥ १६॥
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