________________
I
"नहीं महोत्साह, सब खत्म हो चुका, सुनने को अब कुछ नहीं रहा है। वसन्तमाला ने कहने में कुछ भी बाक़ी नहीं रखा है। बालपन से वे दोनों अभिन्न रही हैं, फिर बसन्त सत्य को कैसे प्रकट करेगी? कितनी बार अंजना को हम सब लिवा लाने गये पर अकारण ही मुकर गयी...। अवश्य ही कोई खोट उसके मन में थी। और फिर सती का सत् छुपा नहीं रहता है। सती होती तो सास-ससुर को ही न जीत लेती। वे ही क्यों उसे निकालते? - पाप चाहे सन्तान का ही रूप लेकर क्यों न आए, वह त्याज्य हो है, महोत्साह! फिर लोक-भर्यादा को यदि राजा ही तोड़ेगा, तो कौन उसकी रक्षा करेगा? लोक में बड़ा कौन है? रक्षक के चोले में यदि भक्षक बन जाऊँगा, तो जन्म-जन्म नरक पाऊँगा। जाओ मेरे अभागे बेटे उस पापिन से जाकर कहो कि वह जीवित रहकर दोनों कुलों को लोक में लजाती न फिरे-!"
...कुछ दूर के रास्तों में घूम-फिरकर फिर वसन्त कहीं झाड़ों की आड़ में आ खड़ी हुई थी। उसने यह सारा वार्तालाप सुन लिया। उसे लगा कि पैरों के नीचे की पृथ्वी नीचे धँसी जा रही हैं। सामने का यह सारा अवकाश ही लीलने को चला आ रहा है। झूठा है संसार झूठी हैं उसकी ममता-माया और प्रोति। झूठे हैं मां-बाप, पुत्र और पति, कुटुम्ब और आत्मीय । तब स्वार्थ के सगे और साथी हैं। दुख के समय नहीं है कोई रखनेवाला । आप ही अपने को नहीं रख पाता है यह जीव, ती फिर दूसरा कौन इसे रख सकेगा? अपने घर जाने की इच्छा भी बसन्त की नहीं हुई। आप वे अपनी रक्षा करेंगे और कौन जानेगा कि अभागिनी मैं कहाँ गयी हूँ? चिन्तातुर और क्षुब्ध हृदय से भागती हुई वसन्त सीधी भिक्षुणी आवास को लोट आयी । पाया कि अंजना डाभ को शय्या पर चुपचाप खोयी पड़ी है। शायद उसे नींद लग गयी है। चुपचाप पास बैठकर किसी तरह दो पहर रात बिता देने का संकल्प वह करने लगी। इतने ही में जैसे कोई तीव्र पीड़ा हो रही है, ऐसी कसमसाहट से अंजना पसली दबाकर तड़प उठी। हल्की-सी आह उसके मुँह से निकल गयी ।
-
"अंजन : नींद आ रही है?"
पीड़ित स्वर को दबाती हुई अंजना बोली
"ओह जीजी, कब आ गयीं? बोलीं क्यों नहीं में तो जाग ही रही थी।"
" तकलीफ़ हो रही हैं, अंजन?"
जवाब नहीं आया। फिर धीरे से केवल इतना ही कहा
"कुछ नहीं जीजी.... यों ही..."
कहते-कहते यह आवाज फिर आहत हो गयी। उसकी बढ़ती हुई छटपटाहट वसन्त से छुप न सकी।
"अंजन मुझसे छिपाकर किससे कहेंगी? क्या समझ नहीं रही हूँ उस दुष्टा
142 मुक्तिदृत