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को इष्ट है वही आत्मा की अव्याबाध कोमलता और देह भी क्या अन्तिम सत्य है। उससे भी तो एक दिन उत्तीर्ण होना ही है। फिर उसकी बाधा कैसी? कोमलता पुरुष को जितनी चाहिए हमसे ले, पर वही हमारी बेड़ी नहीं बन सकती। पुरुष का दिया संस्कार तो क्या, मुक्ति के मार्ग में स्वयं पुरुष भी यदि हमारी बाधा बनकर आए तो वह त्याज्य ही है- "
"पर अपनी रक्षा करने में हम असमर्थ जो हैं, अंजन !"
"यह वही संस्कार की दुर्बलता तो है, जीजी। यह निलगं सत्य नहीं है। इसी विवशता को जोतना है। रक्षा को किसी को नहीं कर सकता। हम आप अपने रक्षक हैं। अपने ही सत्य का बल अपना रक्षा कवच है।- रक्षकों की छत्रछाया में तो अब तक र्धी ही बड़ा भरोसा था उनका। पर वहाँ से भी तो ठेलकर निकाल दी गयीं। और कहो कि शील की रक्षा, तो शील तो आत्मा का धन है; मृत शरीर का कोई जो चाहे करे। इस आत्म-धन की रक्षा के लिए जो सचमुच चैतन्य हैं, देह के विसर्जन में उसे संकीच या भय क्यों होगा ? - तब शील बचाना है किसके लिए? अपने ही लिए तो। पुरुष की सती पतिव्रता सिद्ध होने के लिए नहीं। उसके लिए बचाकर रखा, तब भी क्या सदा उसने हम पर विश्वास किया है? उस मिथ्या मरीचिका के पीछे दौड़ने से अब लाभ नहीं है, बहन । वह सब छूट गया है पीछे - "
“घर हम दोनों अकेली ही तो नहीं हैं, अंजनी, गर्भ में जो जीव आया है, उसकी रक्षा का उपाय भी तो सोचना ही होगा।"
अंजना के उस तेज-तप्त चेहरे में हंसी की एक कोमल रेखा दौड़ गयी। पर उसी प्रखरता से उसने उत्तर दिया
" अपना विधान वह अपने साथ लाया है, बहन ! वह आप अपनी रक्षा करने में समर्थ है। नहीं है समर्थ तो उसका नष्ट हो जाना ही इष्ट है । - किसी का जिलाया वह नहीं जिएगा और किसी का मारा वह नहीं मरेगा। मेरे दुर्भाग्यों से वह परे है। जीवन की उस महासत्ता का अनादर मुझसे नहीं होगा जीजी! चलो देर करना इष्ट नहीं है। दिन उगने से पहले इस नगर की सीमा को छोड़ देना है।"
वसन्त ने सोच लिया कि इस लड़की से निस्तार नहीं है। उसने निश्चय किया कि राह में वह अंजना को राज़ी कर लेगी, और यदि सम्भव हुआ तो वे किसी दूर विदेश के ग्राम में जा बसेंगी। मनुष्य के द्वार पर अब वे भीख नहीं माँगेंगी। अपने ही श्रम से कुछ उपार्जन कर लेंगी। सुखपूर्वक प्रसव हो जाने पर आगे की बात आगे देखी जाएगी। और सच ही तो कहती है अंजन, जो आया है वह भी अपना भाग्य लेकर आया है, उसके पुण्य पर हम सन्देह क्यों करें ?
गर्भ के भार से देह पीड़ित है। राज-भोगों पर पला शरीर निराहार और निरवलम्ब हैं। राह अनिश्चित है और भविष्य धुंधला है। अंजना को चलने में कष्ट ही रहा है, पर पैर एक निश्चय के साथ आगे बढ़े जा रहे हैं । बसन्त का हाथ उसके
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