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रह-रहकर टूट जाती है; कहें कि लोप हो जाती है। तब जागते हैं, पारस्परिक संघर्ष, कषाय और विग्रह। उस धारा को जोड़ सकन की शक्ति जिस दिन पा जाऊंगी, उसी दिन उनके बीच आऊँगो! अपनी ही अपूर्णता और विषमला लेकर आऊंगी. तो उनके जीवन-व्यवहार को शायद और भी जटिल बना देंगी...।"
"ठीक-ठीक तरा अभिप्राय नहीं समझो हूँ, अंजन? कैसे तू भागने की तर्कयुक्ति सोच रही है। समझती हूँ कि तुझे पकड़कर रखने की शक्ति मुझमें नहीं है। फिर भी स्पष्ट जानना चाहूँगी, तू क्यों अपने स्वजनों के पास नहीं जाना चाहती वे तो तुझे प्राणाधिक प्यार करते हैं। कितनी ही बार वे तुझे लेने आये, तेरे पैर तक पकड़ लिये, पर तू न गयी। आज भी इस आपदकाल में वे तो तुझ पर विश्वास ही करेंगे। उनकी गोद तेरे लिए सदा खुली है। क्या तू सोचती है कि वे भी तुझ पर सन्देह करेंगे?"
जना कुछ देर चु! रही. वर . देखती हुई ईषत मुसकराकर बोली
...वैसा भी हो जाए तो कोई बड़ी बात नहीं है, जीजी! विश्वास न भी कर सके तो क्या इसमें उनका कोई दोष है:-कर्मावरण तो सब जगह एक-से ही पड़े हैं न? उनके और मेरे बीच भी तो वे आड़े आ ही सकते हैं। इसके उदाहरण लोक में कम नहीं हैं। उन्हें ही कौन-सा प्रत्यक्ष प्रमाण देने को है मेरे पास?--सिवा इसके जो छिपाये छिप नहीं सकता! और लोक-दृष्टि में यही तो है पाप का साक्षात् रूप! उन स्यजमों की भी अपनी परिस्थिति है। वे भी तो एक लोक-समाज के अंग हैं। उसकी भी तो अपनी कुल-प्रतिष्ठा, लोक-मर्यादा और सदाचार के नीति-नियम हैं। अज्ञात काल से चली आयीं उन्हीं परम्पराओं से वे भी तो बैंधे हैं। उन संस्कारों को तोड़ देना, उनसे ऊपर उठकर देख सकना उनके लिए भी सहज सम्भव नहीं है। पहले मैं परित्यक्ता थी, फिर मुझसे मर्यादा टूट्टी; और अब तो गप्त व्यभिचार के कलंक का टीका भी मेरे भाल पर लगा है! इन सबको लेकर वहाँ जाऊँगी, तो वहाँ भी उन सबके विक्षोभ और क्लेश का कारण ही बनूंगी। वहाँ के लोक-समाज को मर्यादा को भी धक्का लगेगा। उसे तोड़कर वे मुझे अपनाएँगे तो परिणामहीन हिंसा और कषाय लोक में फैलेगा। वह इष्ट नहीं है, जीजी! कल्याण उसमें न उनका है न मेरा, और तत्य की राह से नहीं खुलेगी। उनटे संघर्ष ही बढ़ेगा।"
लोक समाज चदि अज्ञान के अँधेरे में पड़ा है, तो उसे यों छोड़कर चले जाने में, निरा स्वार्थ और भीरुता ही नहीं है? अपना ही बचाब यदि यों सब करने लगेंगे, तो लोकाचार का मांगलिक राजपथ कौन प्रशस्त करेगा।"
"पर लोक को पथ दिखाने की स्पर्धा करूँ, ऐसी सामर्थ्य मेरी नहीं है जोजी! आप अपने पथ पर चली चलं, अपने सत्य पर अटल और अच्युत रह सकें, वही मेरे लिए बहुत होगा। और तब किसी दिन दि उस सत्य का सम्पूर्ण बल पा गयी,
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