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मेरी शपथ है! जाकर अपने बच्चों और पति की सुध लो। विश्वास रखना, तुम्हें अन्यथा नहीं समझेंगी। सुख-दुःख और जन्म-मरण में तुम्हारा आशीर्वाद सदा मेरे. साथ रहेगा!"
"पत्थर की नहीं हूँ अंजन, तेरी वेदना को समझ रही हूँ। जानती हूँ कि तेरी होड मैं नहीं कर सकेंगी। तेरी राह की संगिनी हो सके, ऐसी सामर्थ्य मेरी नहीं है। पर मेरी ही तो मति गम हो गयी थी, और उसी का परिणाम है कि यह संकट की घड़ी आयी है। क्यों मन तुझे स्वच्छन्द होने दिया, क्यों जाने दिया मृगवन; क्यों उस दिन कुमार को रोका नहीं-कि बीर की यों गुप्त राह आना और चले जाना शोभा नहीं देता। स्वार्थी पुरुष ने सदा यही तो किया है! और स्वार्थ पूरा होने के बाद काय उसने पीछे फिरकर देखा है पर मोह के वश ये सारी भूलें मुझी से तो हुई हैं। तेरे साथ रहकर इनका प्रायश्चित्त किये बिना, किस जन्म में इनसे छूट सकँगी?"
___"तुम्हें छोटा नहीं आँक रही है, जीजी: दूर रहकर भी क्या क्षण-भर भी जीवन के पथ में तुम मुझसे विलग रही हो? मेरी कॉटों की राह में, अपना हृदय बिछाकर तुमने सदा उसे सुखद बनाया।-तुम्हीं ने दिखाया था उन्हें, मानसरोवर की लहरों पर, पहली बार! रूठकर वे गये, तो तुम्ही उत्त रात उन्हें लौटा लायौं, और जगाकर मुझे सौंप दिया। और आज इस क्षण भी तुम्हारे ही सहारे यहाँ तक चली आयी हूँ। अपने पथ पर निःशंक तुमने मुझे जाने दिया। इसलिए कि तुम्हारे मन में उसके लिए आदर था। और माना कि वे गुप्त रास्ते आये, चीर की तरह वे नहीं आये। ...पर जो वेदना वे लेकर आये थे, वह क्या तुमसे छिपी है, जीजी? ये तो मुझे कृतार्थ करने आये थे! इस क्षण उन्हें मेरी जरूरत थी। और मैं थी ही किस दिन के लिए? तुम्हीं कहो, क्या उस क्षण उन्हें ठुकरा देती?-तुमसे जो हुआ है, वह कल्याण ही हुआ है, जीजी। पर देखती हूँ कि तुमसे लेती ही आयी हूँ, देने को मझ कंगालिनी के पास क्या है?...और आज यदि दिया है तो कलंक! यही सब अब नहीं सहा जाता है, जोजो। इसी से कहती हूँ कि अब यह भार मुझ पर मत डालो-मैं तुच्छ दबी जा रही हूँ इसके नीचे-- ।" ___ "तेरो बात कुछ समझ नहीं पा रही हैं, अंजन! क्या है तेरा निर्णय, ज़रा सनं!"
अंजना की वे पारदर्शिनी आँखें, फिर किसी दूर अगम्य में जा अटकी थीं। कुछ देर मौन रहा, फिर एक दबी निःश्वाल छोड़कर वह धीरे से बोली
...मेरा क्या निर्णय है, जीजी, पथ की रेखा तो वे आप ही खींच गये हैं। देख नहीं पाती हूँ, फिर भी अनुभव करती हूँ कि उसी पर चल रही हूँ। ज्यों-ज्यों आगे बढ़ती हूँ, राह खुलती जाती है। माना कि सामने साँप बिछे हैं और भालू झपट रहे हैं। खन्दक और खाइयों भी हैं-! पर हँस-हँसकर ये पास बुला रहे हैं, तो रुक कैसे सकूँगी? इनके इंगित पर । नरक की आग में भी चलना पड़ेगा, तो हंसती हुई चली चलूँगी । क्योंकि जानती हूँ कि वे गिरने नहीं देंगे--हाथ जो झाले हुए हैं। जाने
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मुक्तिन :: ।।