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भी बिलकुल अविचल भाव से निद्रा में मग्न थीं। ऐसा लगता था जैसे कुछ हुआ . ही नहीं है।
ढलते हुए अपराष्ट्स में दोनों की नींद जाने कब खुल गयी। दूर पर दन्तिपर्वत को नील भंग-रेख दीखने लगी थी। देखा और अंजना का हृदय एक मार्मिक वेदना से हिल उठा। रोयें-रोयें में सौ-सौं जन्म मानो एक साथ जाग उठे हों। दन्ति-पर्चत के शिखर पर बैठकर वीणा बजानेवाली वह मुक्त-कुन्तला, निर्दोष बालिका फिर उसकी आँखों में सजल हो उठी। आह, कितनी दूर, किस कालातीत लोक में चली गयी है यह? क्या वह उसे कभी न पा सकेगी? और उसे पाने के लिए एकबारगी ही अंगका सारा अतालिका को पाल हो र ! यह प्रगाढ़ता से आँखें मूंदकर व्यथा से भर आये अपने अन्तर को यह संयत करने लगी।
"अंजन...!
आँखें खोलकर अंजना ने वसन्त की ओर देखा। दोनों ने एक-दूसरे को देखकर एक वेदनाभरी मुसकराहट बदल ली। साँझ के सूर्य की म्लान किरणों में दूर पर, महेन्द्रपुर की उन्नत प्रासाद-परम्पराएँ और भवन दीख रहे हैं। देव-मन्दिरों के भव्य स्वर्ण गुम्बज, देवत्व की महानता को घोषित कर रहे हैं। शिखरों पर उड़ती हुई ध्वजाएँ मंगल का सन्देश दे रही हैं। आस-पास के उपवनों और उद्यानों में ताल झाँक रहे हैं। खेतों के किनारे ग्राम-रपणियों जल की कलसियाँ भरकर जाती हुई दीख पड़ती हैं। कोई-कोई विरल परजन या पुरनारी भी इधर आते दीख पड़ते हैं।
अंजना की आँखों के ऑस् न थम सके। बाईस वर्ष बाद आज फिर आयी है वह अपनी जन्मभूमि में-पिता के द्वार पर शरण की भिखारिणी बनकर-कलंकिनी होकर! क्या वे देंगे प्रश्चय? और देगी प्रश्रय यह जन्मभूमि? पर, प्रश्न को जैसे उसने दबा देना चाहा, और मन-ही-मन बार-बार केवल प्रणाम ही करती रही।
महेन्द्रपुर के सीमा स्तम्भ के पास आकर रथ रुका। राह में उतर पड़ने की बात अंजना की कल्पना में भी नहीं आ सकी थी। क्योंकि सारथी का कर्तव्य वह जानती थी। और सास-माता के दिये दण्ड को जहाँ तक निभा सके निभा देने से भी उसे इनकार नहीं था। अंजना और वसन्त रथ से नीचे उतरीं।-धरती पर पैर जैसे अंजना के ठहर नहीं रहे हैं। घर-घर उसका सारा शरीर काँप रहा है, जैसे अभी गिर जाएगी। सड़क के एक ओर के वृक्ष-तले वसन्तमाला उसे संभालकर ले गयी । सारधी रथ से उतरकर विदा माँगने आया।-मूक पशुवत् वह अंजना की ओर देख रहा था। आँखों में उसके आँसुओं की झड़ी लगी थी। दूर ही भूमि पर पड़कर उसने बार-बार प्रणाम किये। अपने कटोर कर्तव्य पालन के लिए क्षमा मांगने को शब्द उसके पास नहीं धे। घोर ग्लानि, अनुताप और करुणा से होठ उसके खुले रह गये थे-और फटो आँखों के आँसुओं में उसकी मूक बेबसी बिलख रही थी।
अंजना बड़ी कठिनाई से अपने को ही सैंभाल पा रही थी। पर सारथी की
मुक्तिमृत : 15