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...कि बिजली की तरह एक प्रचण्ड पदाघात उसकी छाती में आकर लगा। वह तीन हाथ दूर जा पड़ी।
"राक्षसी...कलाकेनी...ओ पापिन, तूने दोनों कुलों के भाल पर कालिख पोत दी! तूने वंश की जड़ों में कुठाराघात किया है,, और अब सती बनकर बैठी है शास्त्र पढ्ने!...किससे जाकर किया है यह दुष्कर्म...किससे जाकर फोड़ा है सिर...?"
कहते-कहते रानी फिर झपर्टी और कसकर एक-दो लात अंजना के सिर और पीठ में मार दी। वसन्त बीच में रोकने को आयी तो उसकी पसली में एक पँला देकर, बिना बोले ही उसे दूर ठेल दिया। बसन्त उस मर्मान्तक आघात से धपू से धरती पर बैठ गयी।
_ "सब बता डायन, सच बता, छह महीने हुए वह युद्ध पर गया है, और उसके पीठ फेरते ही तुझे सूझा यह खेल...? पर, कब की जान रही हूँ तेरे कृत्य, तभी तो जाती थी मृगवन, अरुणाचल की पहाड़ी! गाँव-बस्तियों और जंगल में जो भटकती फिरती थी! भाग्य तो तभी फूट गया था, पर किसले कहती? पति लो धर्मात्मा और उदासीन ठहरे और पत्र अपना ही नहीं रहा।"
अंजना औधी पड़ी है, अकम्प, मेरु-अचल !
"हतभागिनी पत्थर होकर पड़ी है-कुछ भी नहीं लगता है! धरती भी तो पाप का भार ढो रही है जो फटकर इस दुष्टा को नहीं निगल जाती....हमारे ही भाग्य 4तो दोष है।"
क्रोध से पागल रानी की छाती फूल रही है-नथुने फड़क रहे हैं। हौंफते-हॉफते जरा दम लेकर फिर बोली
"अरी ओ भ्रष्टे, चल उठ यहाँ से...जा...अपने बाप के घर जा! एक क्षण को भी देर हुई तो अनर्थ घट जाएगा । दुनिया कुल के मुख पर लांछन का कीचड़ फेंकेगी। अरे नरक की बहियाँ खुल पड़ेंगी...उठ शंखिनी...उठ, देर हो रही है...!"
कहते हुए राजमाता ने पास जा अंजना को झकझोरकर उठाना चाहा। अंजना ने उनके पैरों में गिरकर उन पर अपना सिर झाल देना चाहा। तब पैर खींचकर, एक और ठोकर से उसे ठेलती हुई महादेवी बोलीं__ "दूर हट...पापिन, दूर हट...अंग छू लेगी तो कोढ़ निकल आएगी..."
अंजना के दोनों खाली हाधों के बीच बिखरे केशों में ढका माथा पड़ा है। रुदन छाती तोड़कर फूट ही तो पढ़ता था, पर आज उसकी छाती ही जैसे वज्र की हो गयी है। पहले अंजना के मन में आया कि अपनी बात कहे। पर परिस्थिति का ऐसा अन्ध और विषम रूप देखकर, वह स्तब्ध रह गयी। उसका समस्त मन-प्राण विद्रोह से भर आया ।., नहीं, वह नहीं देगी कैफियत । सुनने और देखने को जिनके पास आँखें और कान नहीं हैं, क्षण-भर का भी धैर्य जिन्हें नहीं है, सिर से पैर तक जो अपने ही मान मद में डूते हैं, और सत्य की जिनमें जिज्ञासा नहीं है, निष्ठा नहीं
123 :: मुक्तिदूत