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सबमें होकर दिन और गत, सोते और जागते उसकी दृष्टि लगी है, विजया के .. लुदुर श्रृंगों पर। नहीं दीख पड़ता है वहाँ आता हुआ वह धवल तुरंग। नहीं दीख पड़ती है चिन्तामांग स चमत्कृत शिरस्त्राणको अभा! किसी जय पताका का कोई चिह भो दूर-दूर तक नहीं है। कभी-कभी स्वप्नाविष्ट-सी, वह दसों दिशाओं को सूनी
आँखों से घण्टों ताकती रह जाती है। किसी भी दिशा में नहीं दीख पड़ती है. सैन्य के अश्वों से उड़ती धूल । जयभेरी का स्वर भी नहीं सुनाई पड़ता। टूर की उपत्यका जयकारों के निनाद से नहीं गूंजती। सुनसान क्षितिज के पटल पर नियति-सा शून्य और अचल यह आकाश खड़ा है!
इस महल को छोड़ने का संकाय अंजना उस दिन कर चुकी थी। पर वह जाने को ही थी कि उस रात अचानक पवनंजय आ गये। वे आप मर्यादा की रेखा स्वयं खींच गये हैं। इसे लाँघकर तब अंजना को कहीं जाना नहीं है। पर लोक-मर्यादा के विचार-पति क्या इस मर्यादा-रेखा का आदर करेंगे? प्रच्छन्न रूप से दिन-रात यह प्रश्न उसके अन्तरतम में कसकता रहता है।
दिन सप्ताह और सप्ताह महीने होत चाले। उनके आने की सारी आशाएँ दुराशा हो गयीं। प्रतीक्षा की दृष्टि पागल और अनन्त हो उठी है। कोई सूचना नहीं हैं, संवाद भी नहीं है। पथिकों और प्रवासियों के मुँह अस्पष्ट और अनिश्चित खबरें आदित्यपुर में आती रहती हैं।
..अंजना के शरीर में गर्भ के चिह्न प्रकट हो चले। नवीन मंजरियों से लदे रसाल-सी अंजना को सारी देह पाण्डुर हो चली है। मुख पर फूटते दिन की स्वर्णाभा दीपित हो उठी है। दिन-दिन उन्नत और उदार होते स्तनों के भार से वह नम्रीभूत हो चली है। अंगों में विपुलता का एक उभार और निखार है। भीतर के गहन और सधन आनन्द-भार से एक मधुर गाम्भीर्य का प्रकाश बाहर चारों ओर फूट पड़ा है। श्री, कान्ति, रस और समृद्धि से आनत अंजना जव चलती है, तो गजों की भव्य गति विनिन्दित होतो है-पैरों तले की धरती गर्व से डोल-डोल उठती है! प्रकाश पर कौन-सा आवरण डालकर उसे छुपाया जा सकता है। वह तो फैलता ही है क्योंकि वहीं उसका निसर्ग धर्म है। लोक-दृष्टि ने देखा और अनेक बचाएँ अन्दर-ही-अन्दर चलने लगीं।
भीतर जो भी अंजना का मन दिन-रात चिन्ता और भय से सन्त्रस्त है, पर उस सब पर पड़ा है जाने किस अदृष्ट भावी विश्वास का बलशाली हाथ, कि एक अमन्द आनन्द की धारा में वह अहर्निश आप्लाबित रहती है।
इसी से कभी-कभी जब अकेले में चिन्ता में इबी वह उदास हो जाती ती यसन्त मौन-मौन उसके हृदय की व्यथा की आँखों से पी लेती। उसे छाती से लगाकर मूक सान्त्वना देती। अंजना एकाएक हँस पड़ती। चेहरे की वेदना उस हैंसी से और भी मोहक हो उठती। अंजना कहती
124 :: मुक्तिदूत