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पवनंजय की नींद खुल गयी। "उठो देव!" पायताने की ओर सुनाई पड़ा वह मृदु स्वर।
अंगड़ाई भरते हुए, सहन्न इष्टदेव का नामोच्चार करते पवनंजय उठ बैठे। सामने था वहीं मुसकराता हुआ सती का अनिन्द्य उज्ज्वल मुख । दोनों एक-दूसरे की आँखों में से एक-दूसरे के पार देख उठे...।।
"दिन उगने को है-जाने की तैयारी करो, अब देर नहीं है!" स्नेह के उन्मेष में अंजना की चिबुक पकड़कर बोले पवनंजय
"जाने को कहोगी तुम्ही, और उसको भी इतनी जल्दी ही पड़ी है तुम्हें...?" __"अपनी विवशता जानती हूँ न । तुम्हें कब-कब रोक सकी हूँ? नहीं रोक सकी हूँ, इसी से तो कह रहा हूं!...पर..., मेरी एक बात मानांग...?"
अंजना ने दोनों हथेलियों से बिखरी अलकोंवाले उस चेहरे को दबा लिया। फिर पवनंजय के दोनों कन्धों पर हाथ डालकर भरपूर उनकी ओर देखती हुई बोली
"मेरी शपथ खाकर जाओ कि अनीति और अन्याय के पक्ष में-मद और मान के पक्ष में तुम्हारा शस्त्र नहीं उठेमा। क्षत्रिय का रक्षा-व्रत विजय के गौरव और राज-सिंहासन से बड़ी चीज है!"
क्षण-भर खामोशी व्याप गयी। युद्ध का नाम सुनकर पवनंजय बौखला आये
"अ..अंजन, वह सब कुछ मुझे नहीं मालूम है...कुछ करके मुझे रोक लो न...? मुझे नहीं चाहिए युद्ध, वह थी केवल मरीचिका, मान कषाय की वही मोहिनी, जिसके वश मैं इतने वर्षों भटकता रहा। उसी की चरम परिणति है यह युद्ध। इससे मेरी रक्षा करो, अंजन!" निपट हत-बुद्धि, अज्ञानी बाल की तरह ये विनती कर उठे।
__ “नहीं, रोक नहीं सकूँगी । लौटकर तुम्हें जाना ही होगा। तुम्हारा ही पक्ष यदि अन्याय का है तो उसके विरुद्ध भी तुम्हें लड़ना होगा। पर इस क्षण रुकना नहीं है, मेरे वीर!"
पवनंजय की शिरा-शिरा एक तेजस्वी वीर्य से ओत-प्रोत हो उठी। कन्धों पर पड़े अंजना के दोनों हाथों को हाथ में लेकर चूम लिया और योले
"मुझे शपथ है इन हाथों की, और इन हाथों का आशीर्वाद ही सदा मेरी रक्षा भी करेगा...।"
उल्लसित होकर पवनंजय उठ बैठे और प्रयाण की तैयारी करने लगे। इतने ही में दहर प्रहस्त का उच्च स्वर सुनाई पड़ा।
...अंजना के भीतर एक नामहीन, निराकार-सा सन्देह जाग उठा। भीतर एक धुकधुकी-सी हो रही है। क्या कहे, कैसे कहे, वह स्वयं जो नहीं जान रही है। पलंग के पायताने सोच और संकोच में डूबी वह खड़ी है।
"देवी, दिन उगने को है, विदा दो!"
५५ :: मुक्तिदूत