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पर पैर रखींच ल, यह उनके बस का नहीं है। अंजना मंजरियों-सी हँस आयो-धीमे से बोली
"इरो पत, मैं ही हूँ! युद्ध की राह से लौटकर आये हो न, और जाने कितनी-कितनी दूर की यात्राएँ कर आये हो! सोचा थक गये होंगे...तुम नहीं...बेचारे ये पैर...!' .
एक मार्मिक दृष्टि से पवनंजय की ओर देख अंजना खिलखिलाकर हैंत पड़ी। पवनंजय गहरी लज्जा और आत्मोपहास से मर मिटे। पर आघात कहाँ था? अगले ही क्षण एक अप्रतिहत आनन्द की धारा में वे डूब गये। बाल-सुलभ चंचलता से बोल पड़े.
"हाँ-हा-सब समझ गया, अपनी सारी मूर्खताओं पर अभी भी मैंने परदा ही डाल रखा है। पर तुम्हारे सामने कौन-सी मेरी माया टिक सकेगी? तमसे क्या छिपा रह सका है? यहाँ बैठकर भी अनुक्षण, मेरे पीछे छाया की तरह जो रही हो। मेरे सारे छिद्रों पर स्वयं जो परदा बनकर पड़ी हो। जानती हो, उन यात्राओं में मुझे किसकी खोज थी?"
"हम अन्तःपुर की वासिनियाँ, तुम्हारी खोज का लक्ष्य क्या जानें? आप पुरुष हैं-और समर्थ हैं। बड़े लोग हैं न, बड़े हैं आपके मनसूबे, आपके संकल्प और लक्ष्य!
आप लोगों के परे जाकर हमारी गति ही कहाँ है, जो आपके रहस्यों की थाह हम पा सकें। अनुगामिनियाँ जो ठहरीं..."
पवनंजय सुनते-सुनते हँसी न रोक सके । अन्तर में उलझी-दबी सारी पीड़ाओं को, यह सरल लड़की, इन स्नेहिल आँखों से, हँस-हँसकर, कैसे सहज सुलझाये दे रही है। अशेष दुलार का जोर माकर पवनंजय अल्हड़ हो पड़े और बोले
___"हाँ, सच ही तो कह रही हो, तुम्हारी खोज तो अवश्य ही नहीं थी! यों ना कहकर, सोचती हो कि मुझे ठगकर मेरा लक्ष्य बनने का गौरव ले लोगी, सो नहीं होने दूंगा!...हाँ, तो लो सुनो, अच्छी तरह तैयार हो जाओ और कान खोलकर सुनो। बताता हूँ, मुझे किसकी खोज थी।
फिर एक मार्मिक दृष्टि से, अपनी ही ओर भरपूर खुली अंजना की आँखों में गहरे देखते हुए खिलखिलाकर हँस पड़े और बोले--
“मुझे मुक्ति की खोज थी..! आदि प्रभु ऋषभदेव की निर्वाण-भूमि पर जाकर भी मन को विराम नहीं था? मुझे चाहिए था निर्वाण! लहरों के मरण-भँवरों पर मैं बेसुध खेल रहा था। इसी बीच पीछे से तुमने पुकारा । तुमने फेंका वह लावण्य का पाश । मैं देश-कालातीत सौन्दर्य की कल्पना से भर उठा। तम्हीं ने दिया था वह
अभिमान । मैं प्रमत्त हो उठा। तुम्हें जब मूल बैठा, जिसने दी थी वह कामना, तो फिर कहाँ ठिकाना थाः ओ कामनाओं की देवी! कामना दी है, तो सिद्धि भी दो!
120 :: मुक्तिदूत