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इस क्षुद्र, जड़ वैभव की ऐसी स्पधा कि वह इस मिलन का कोड़ बनने को उद्यत हो पड़ा है? सब सरंजाम अपनी जगह पर ठीक है।
पभराग-मणि के पयंक की वह कुन्दोज्ज्वल, उभारवती शय्या आज सूनी नहीं है। उपधान पर कोहनी के सहारे कुमार पवनंजय अधलेटे हैं। पास ही चौकी पर स्तवकों में रजनीगन्धा, जूही और शिरीष के फूलों के ढेर पड़े हैं। शय्या पर कामिनी कुसुम के जूमख्ने बिखरे हैं। महक से वातावरण व्याप्त है। पर्यंक के पायताने की
ओर, पैर सिकोड़कर अंजना बैठी है। एक हथेली पर मुख उसका हुलका है। आँखें उसकी झुकी हैं-अन्तर के सहज संकोच से नम्र, वह एक बिन्दु-भर रह गयी है। राग नहीं है, सिंगार नहीं है, आभरण भी नहीं है। चारों ओर लहराती घनी और निबन्ध केश-घटा के भीतर से झाँकती यह तपक्षीण, कल्पलता-सी गौर देह निवेदित है। हिमानी-से शुभ्र दुकूल में से तरल होकर, भीतर की जाने किस गंगोत्री से गंगा की पहत्ती धारा फूट पड़ी है। कुमारिका का हिमवक्ष पिघल उठा है-उफना उठा है। देखते-देखते पवनंजय की आँखें मैंद गयीं। नहीं देख सकेगा वह, नहीं सह सकेगा-इस हिमानी के भीतर छुपी उस अग्नि का तेज । इन कलुषित आँखों की दृष्टि उसे छुआ चाहती है? ओह, कापुरूष, तस्कर, लुटेरा-अत्याचारी! तेरा यह साहस? भस्म हो जाएगा अभागे? एक मन्तिक आत्म-भर्त्सना से पवनंजय का सारा प्राण त्रस्त हो उठा
पर वह छवि जो उसके सारे कल्मष को दबाकर उसके ऊपर आ बैठी है और मुसकरा रही है। वही है इस क्षण की स्वामिनी, उसी का है निर्णय! पवनंजय का कर्तृत्व इस क्षण मानो कुछ नहीं है।
मुंदी आँखों के भीतर फिर उसने देखी बही निरंजना तन्वंगी। कलाइयों पर एक-एक मृणाल का बलय है, और सती के प्रशस्त भाल पर शोभित है सौभाग्य का अमर तिलक : जैसे अखण्ड जोत जल रही है। दुलकी पलकों की लम्बी-लम्बी फैली बरौनियों में भीतर का सरल अन्तस्तल साफ़ लिख आया है। अरे कौन-सा है वह पुरुषार्थ, जो इसका वरण कर सकेगा? कौन-सा बह सक्षम हाथ है, जो इसे छू सकेगा...? पवनंजय ने अपना मुँह उपधान में डुबा दिया।
पर गंगा को धारा, जो चिर दिन की रुद्रता तोड़कर फूट पड़ी है, उसे तो बहना ही है।
पवनंजय ने अनुभव किया-पगतलियों पर एक विस्मरणकारी, मधुर दबाव! रक्त में एक सूक्ष्म सिहरन-सी दौड़ गयी। मुँह उठाकर उन्होंने सामने देखा ।.., मुसकराती हुई अंजना की वह घनश्याम पक्ष्मों में पूर्ण खिली स्नेह की विशाल दृष्टि!-अचंचल वह उनकी ओर देख रही है। पहली ही बार आया है शुभ-दृष्टि का यह क्षण। हाथ उसके चल रहे हैं-एक गोद पर पवनंजय की एक पगतली लेकर यह दाब रही है। पवनंजय सहम आये। शिराओं में एक गहरा संकोच-सा हुआ।
मुक्तिदूत :: 119