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रत्नकूट प्रासाद की चाँदनी-धात छत पर यान उत्तरा। पवनंजय उतरकर कोने के एक गवाक्ष के रेलिंग पर जा खड़े हुए। दोनों हाथों से खम्भे पकड़कर वे देखते रह गये... | अपूर्व खिली है यह रात, सौरभ और सुषपा में मूर्च्छित। काल का सहस्र-दल कमल विगत, आगत और अनागत के सारे सौन्दर्य-दलों को खोलकर मानो एक लाध खिल आया हैं। नया ही है यह देश! अपनी महायात्रा में अद्भुत और अगम्य प्रदेशों में बह गया है। सौन्दर्य का विसटतम रूप उसने देखा है। अभेटा रहस्यों को उसने भेदा है। पर अलौकिक है वह लोक! आस-पास सब कुछ तरल है और तैर रहा है। आलोक की बाँहों में अन्धकार और अन्धकार के हृदय में आलोक। सब कुछ एक दिव्य नवीनता में नहाकर अमर हो उठा है। क्या वह सपना देख रहा
प्रहस्त अपने कर्तव्य में संलग्न थे। उन्होंने कक्ष के द्वार पर खड़े रहकर स्थिति का अध्ययन किया। देखा, सब शान्त है; निद्रा के श्वास का ही धीमा रव है। द्वार के पास, उन्होंने पहचाना कि वसन्समाला सोयी है। धीमी परन्तु निश्चित आवाज़ में पुकारा- "देवी-देवी वसन्तमाला!"
नींद अभी लगी ही धी। चौंककर बसन्त उठी। द्वार में देखा, कुछ दूर पर चाँदनी के उजाले में कोई खड़ा है। उसने प्रहस्त को पहचाना! वह सहमकर खड़ी हो गयी। विस्मित पर आश्वस्त वह बाहर चली आयी। पास आकर बहुत धीमे कण्ठ से पूछा__ "आप?...इस समय यहाँ कैसे?"
"देव पवनंजय आये हैं! इसी क्षण देवी से मिलना चाहते हैं। उस और के कोण-यातायन पर प्रतीक्षा में खड़े हैं..."
___"देव पवनंजय...? क्या कहते हैं आप?...वे...यहाँ...इस समय कैसे...?" वसन्त के विस्मय का पार न था। पति मूढ़ हो गयी और प्रश्न बौखला गया।
"हाँ, देव पवनंजय! कटक को राह में छोड़ गुप्त यान से आये हैं। अभी-अभी युवराज्ञी से मिलना चाहते हैं। विलम्ब और प्रश्न का अवसर नहीं हैं। देवी को जगाकर सूचित करो और तुरन्त उनका आदेश मुझे आकर कहो!"
वसन्त की पाते गुम थी। यन्त्रचत् जाकर उसने अंजना को जगाया। "कौन, जीजी-क्यों?" "उठो, अंजन, एक आवश्यक काम है। लो, पहले मुँह धोओ, फिर कहती हूँ।"
कहते हुए उसने पास ही तिपाई पर पड़ी झारी उठाकर सामने की। अंजना सहज 'अर्हन्त' कहकर उठ बैठी और मुँह धोते हुए पूछा
भऐसी क्या बात है, जीजी?" बसन्त क्षण-भर चुप रही। अंजना के मुँह धो लेने पर धीरे से कहा
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