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पर पैर न भाग पाते हैं, न खड़े रह पाते हैं और न आगे ही बढ़ पाते हैं...!
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नीची दृष्टि किये ही रहे हैं। कहीं यह विलास कक्ष | नहीं बिछी है यहाँ सुहाग की कुसुम-सज्जा सामने वह पाषाण का तल्प बिछा हैं और उस पर विधी हैं वह सीतलपाटी। सिरहाने की जगह कोई उपधान नहीं है; तब शायद सोनेवाली का हाथ ही है उसका सिरहाना । पास ही तिपाई पर पानी की दो-तीन छोटो-बड़ी झारियाँ रखी हैं।... और पायताने की ओर जो वह खड़ी है... क्या उसी की हैं यह शय्या? कोने में स्फटिक के दीपाधार में एक मन्द दीप जल रहा है । निष्कम्प है उसकी शिखा आस-पास दीवारों के सहारे, कोनों में वैभव स्वयं अपने आवरणों में सिमटकर, परित्यक्त हो पड़ा है! छत के मणि- दीप आवेष्टनों से ढके हैं-निरर्थक और अनावश्यक ।
और जाने कब अंजना ने आकर कुमार के उन काँपते, असहाय पैरों को अपनी भुजाओं में थाम लिया। पुरुष की नसों में जड़ और शीतल हो गया रक्त उस ऊष्मा से फिर चैतन्य हो गया। विच्छिन्न हो गयी जीवन की धारा को आयतन मिल गया; वह फिर से बह उठी । पवनंजय ने चौंककर पैरों की ओर देखा, और परस की उस अगाध और अनिर्वचनीय कोमलता में उतराते ही चले गये!... गरम-गरम आँसुओं से भीगे पलकों का वह गीलापन, ऊष्म श्वासों की वह सघनता, प्राण की वह सारभूत, चिर-परिचित, संजीवनी गन्ध... | पवनंजय का रोयाँ -रोयाँ अनन्त अनुताप के आँसुओं से भर आया। पैरों में पड़ी उस विपुल केशराशि में अस्तित्व विसर्जित हो गया।
आँसुओं में टूटते कण्ठ से पवनंजय बोले
"जन्म-जन्म अपराधी को... और अपराधी न बनाओ!... उसके अपराध को मुक्ति दो... उसके अभिशाप का मोचन करो... "
फिर बोल रुँध गया। क्षणैक ठहरकर कण्ठ का परिष्कार कर फिर बोले"कई जन्म धारण करके भी, इस पाप का प्रायश्चित्त शायद ही कर सकूँ! ऐसा निदारुण पापी, यदि हिम्मत करके शरण आ गया है...तो क्या उस पर दया न कर सकोगी...
"
एकाएक अंजना पैर छोड़कर उठ खड़ी हुई, और बिना सिर उठावे ही एक हाथ की हथेली से पवनंजय के बोलते होठों को दबा दिया और अनायास I बे मृदुल उँगलियाँ उस चेहरे के आँसू पोंछने लगीं।
"मत रोको इन्हें... मत पोंछो... बह जाने दो... जन्मों के संचित दुरभिमान के इस कलुष को चुक जाने दो...आह. मुझे मिट जाने दो..."
कहते-कहते पवनंजय फूट पड़े और बेतहाशा वे अंजना के पैरों में आ गिरे ! अंजना धपू से नीचे बैठ गयी और दोनों हाथों से पकड़कर उसने पवनंजय को उठाना चाहा । पर वह सिर उसके दोनों पैरों के बीच मानो गड़ा ही जा रहा है- धँसा ही
मुक्तिदूत : 11.3