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"यह दुलार का क्षण नहीं हैं, देव, क्षत्रिय के सम्मुख कठोर कर्तव्य-निवार हैं, और सब अप्रस्तुत है, आशीर्वाद दीजिए कि पवनंजय का शस्त्र अमोघ हो; वह अजेय हो मौत के सम्मुख भी... "
और फिर झुककर पवनंजय ने पिता के पाद-स्पर्श किये। पुत्र के सिर पर हाथ रखकर सुख से विहल पिता केवल इतना ही कह सके
" समूचे विश्व की जय लक्ष्मी का वरण करो, बेटा!" और बूढ़ी आँखों के पानी में अनुमति साकार हो गयी।
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वसन्त ऋतु की चाँदनी रात खिल उठी है। अभी-अभी चाँद तमाल की बनाली पर से उग आया है। पूर्णिमा का पूर्ण चन्द्र नहीं है, होगा शायद सप्तमी का खण्डित और बंकिम चन्द्र !
धूप- गन्ध से भरे अपने कक्ष में, इष्टदेव के सम्मुख जब अंजना प्रार्थना से उठो, तो झरोखे की जाली से वह चाँद उसे अचानक दीखा । नीचे था तमालों का गम्भीर तमसा-वन । अंजना को लगा कि कौन गवली, बकिम चितवन अन्तर में बिजली-सो कौंध गयो...!
वह उठी और बाहर छत पर आ गयी... । रात्रि के प्राप्ण सुख से ऊर्मिल हैं। रजनीगन्धा, माधवी और मालश्री के कुंजों से फैलती सौरभ में जन्मान्तर की वार्ता उच्छ्रयसित हो रही हैं। - नारिकेल-वन के अन्तरालों में पुण्डरीक सरोवर की लहरें वैसी ही लीला और लास्य में लोल और चंचल हैं। दुरन्त हैं वे जलकन्याएँ। ऐसी कितनी ही वसन्त, शरद और वर्षा की रात्रियाँ उनमें होकर निकल गयी हैं, पर वे लहरें तो हैं वैसी ही चिर कुमारिकाएँ: कौन छीन सका है उनका वह बालापन!
अंजना का मन, जो स्मृतियों की एक घनीभूत ऊष्मा से घिरकर आहत हो रहा या अप्रतिहत भाव से उठकर चला गया उन वयहीन जलकन्याओं के देश में । ... नहीं, वह भव की विगत मोह-रात्रि में नहीं भटकेगी- नहीं दोयेगी वह स्मृतियों का बोझा । वह नहीं होगी अतीत से अभिभूत और आवृत । अमलिन, शुभ्र - वह तो वैसी ही रहेंगी अवन्ध और अनावरण, अपने ही आत्म-रमण में लीलामयी लास्यमयी । एकाएक दृष्टि फिर चाँद की ओर खिंच गयी। कि उसी चितवन के मान ने, उसी भंगिमा के गौरव ने अन्तर को बोध दिया। सौरभ की एक अन्तहीन श्वास प्राण में से सरसराती हुई चली गयी... |
... ओह, बाईत वर्ष बीत गये, तुमने सोये या जागते किसी आधी रात में भी द्वार नहीं खटखटाया। कभी खटका सुनकर मन की हठ को न टाल सकी हूँ तो
युक्तिदूत : 101