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(बलैया) ले रही हैं। गमन की दिशा में एक श्रेणी में उग्रीव होकर कुमारिकाएँ मंगल के शंख बजा रही हैं। चारों ओर रमणी-कण्ठों से उठते हुए जयगीतों की सुरावलियों से वातावरण आकुल-चंनल है।
रनकूट-प्रासाद के सामने से निकलते हुए कुमार के भू-भंग अनजाने ही धनुष की तरह तन आये। जितना पीछे खिंच सके, खिंचकर तीर ने अपना आखिरी बल साधना चाहा। यह गर्व अपने तनाव में पूर्ण वृत्तांकार होता हुआ, आखिर अपने ध्रुव पर अवश जा ठहरा!
देखा पवनंजय ने, प्रासाद के द्वारपक्ष में एक खम्भे के सहारे टिकी अंजना खड़ी है! दोनों हाथों में धमा है मंगल का कलश, जिसके मुख पर अशोक के अरुण पल्लव बंधे हैं। सुहागिन की शृंगार-सज्जा उस दूज की विधु-लेखा-सी तरल-तनु देह में लीन हो रही है। अकलंक गल रही हिम की उस शुभ्र सजलता में विषाद की एक गहरी रेखा बह रही है, घुल रही है और फिर ऊपर आ जाती है। अंजना की उस स्थिर सजल दृष्टि में कुमार ने निमिष-भर झाँका...विश्व की अथाह करुणा का तल उन आँखों में झलक गया...! पर होठों पर है वही आनन्द की, मंगल की अमन्द मुसकराहट।
...नहीं, वह नहीं रुकेगा...वह नहीं देखेगा...ओह, अशुभ-मुखी....कुमार ने झटके के साथ कुहनी पीछे खींचकर वल्गा खींची; घोड़े को एक सवेग ठोकर से एड दी। हाथ का श्रीफल झुंझलाहट में हाथ से गिरते-गिरते बचा।...खड्गयष्टि में से खिंचकर तलवार उनके हाथों में लपलपा उठी! एक दीर्घ सिमकी के साथ आये हुए । उच्छ्वास में तीन किन्तु स्फुट स्वर निकला
"दुरीक्षणे...छि:!"
शब्द की अनुध्वनि अपने लक्ष्य पर जा बिखरी । अंजना की मुसकराहट और भी दोप्त हो फैल गयी। उसके अन्तर में अनायास स्वरित हो उठा
ओह, आज आया है प्रथम बार वह क्षण, जब तुमने मेरी ओर देखा...तुम मुझसे बोल गये!...हतभागिनी कृतार्थ हो गयी, जाओ अब चिन्ता नहीं है।...अमरत्व का लाभ करो!...देश और काल की सीमाओं पर हो तुम्हारी विजय! पर मेरे वीर, क्षत्रिय का व्रत है त्राण, उसे न भूल जाना । तुम हो रक्षक, अनाथ के नाथ...जाओ, शत्रुहीन पृथ्वी तुम्हारा वरण करे...!" :
. और अगले हो क्षण वह मूच्छित होकर गिर पड़ी। कि नहीं रहेगी, वह शेष! और औसू अविराम और नीरव, उन बन्द नेत्र-पक्ष्मों में से झर रहे थे।
रास्ते में पवनंजय के हृदय की घृणा तीनतम होकर मानो रुद्ध हो गयी और देखते-देखते यह छिन्न-विच्छिन्न हो गयो । युद्ध-सज्जा की सारी कसावटों के बावजूद स्नायु-बन्ध ढीले पड़ गये। अनायास एक असह्य, निगूढ, अननुभूत, अतल वेदना देह के रोयें-रोयें में बज उठी। आस-पास से उठ रही मंगल-ध्वनियों, सैन्व-प्रवाह की
1104 :: पुक्तिदत्त