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जय-जयकारें, वाद्यों के तुमुल घोष, सभी गाने से आते हुए एक आदर से गूँजकर व्यर्थ हो रहे थे और उस सबके बीच अकेले कुमार अपने ही आप से पराजित भयभीत हतबुद्धि, कातर, वितृष्ण चले जा रहे थे।...
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योगायोग : सैन्य ने मानसरोवर के तट पर जाकर ही पहला विश्राम किया। कटक के कोलाहल से तट की निर्जनता मुखरित हो गयी। दूर-दूर तक सैन्य का शिविर फैल गया। - भोजन-पान से निवृत होकर श्रान्त और क्लान्त सैनिक जन अपने-अपने डेरों में विश्राम लेने लगे। हाथी, घोड़े और बैल बन्धनों से छूटकर, तलहटी की हरियाली घास में चरने को मुक्त हो गये।
पवनंजय अपने डेरे में विश्राम नहीं पा सके। मार्ग का श्रमक्लेश मानो उन्हें डू भी नहीं सका है। करवट बदल-बदलकर उन्होंने निद्रस्थ हो जाना चाहा है, कि मन और शरीर शान्त और स्वस्थ हो लें। यह निरर्थक उलझनों की उधेड़-बुन मिट जाए, और सवेरे युद्ध ही हो उनका एकमात्र काम्य और उद्दिष्ट पर अंग अनावास संचालित हैं - सिमट - सिकुड़कर अपने भीतर ही मानो लुप्त हो रहना चाहते हैं। लेकिन इस भीति और त्रास से जैसे रक्षा भीतर नहीं है। एक अवचेतन हिल्लोल के वेग से पैर चालित और चंचल हैं।
अकेले ही वे घूमने निकल पड़े, निष्प्रयोजन और निर्लक्ष्य 1 ये कितनी दूर और कहाँ निकल आये हैं, इसका उन्हें मान नहीं है ।
वसन्त के कोमल आतप में पर्वतों की हिमानी सजल हो उठी है; स्फटिक और नीलम मानो पिघलकर बह रहे हैं। उपत्यकाओं और घाटियों में वन्य सरिताएँ और सरसियाँ प्रसन्न और स्वच्छ हैं। किनारे उनके मोतिया, कासनी, गुलाबी, आसमानी आदि हल्के रंगों के कुसुम व सजल आभा में चित्रित हैं। स्निग्ध किसलयों और पल्लवों से अंकुरित पार्वत्य पृथ्वी किशोरी-सी नवीन और मुग्धा लग रही हैं मानो आमन्त्रण से भरी है। पर्वत ढालों पर सरल, साल और सल्लकी के छत्र-मण्डल से तनोंवाले उत्तुंग वृक्षों की मालाएँ फैली हैं। बीच-बीच में पगडण्डियाँ जंगली हाथियों के दाँतों से टूटी हुई मैनसिल की धूल से धूसर हैं। पाषाण-भेद वृक्षों की मंजरियों से शिलातल आच्छादित हैं। पर्वत के पाषाणस्तरों में अनेक प्रकार के मद, रस और धातु-राग पिघल - पिघलकर दिन-रात बह रहे हैं.....
... पवनंजय ने अनुभव किया कि जैसे उनके भीतर की कठिन ग्रन्थियों की घुण्डियाँ अनायास खुल पड़ी हैं। अरे यहाँ तो सभी कुछ द्रवीभूत है, नम्र है, परस्पर समर्पित है। सभी कुछ सरल, सुषम और प्रसन्न हैं!
मुक्तिदूत
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