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आयुधशालाओं से दिशा-भेदी शंखनाद रह-रहकर उठ रहे हैं। तुरही और भेरी के स्वर-सन्धान में योद्धाओं को रण का आमन्त्रण है...
अपराह्न की अलसता एकाएक विदीर्ण हो गयी। अभी-अभी शय्या त्यागकर पवनंजय उठ बैठे हैं। प्रासाद के चतुथं खण्ड में पूर्वीय बरामदे के रेलिंग पर आकर ये खड़े हो गये। दीखा कि विजया के अरिजय-कूट पर आदित्यपुर की राजपताका वेगपूर्वक फहरा रही है। प्रस्थानोन्मुख स्था की जो सराणका दूर तक चलो गया है, उनके मणि-शिखर और ध्वजाएँ प्लान पड़ती धूप में दमक रही हैं। उठते हुए धूल के बगूलों में अश्वारोहियों की ध्वजाएँ दीख-दीखकर विलीन हो जाती हैं। कवय, शिरस्त्राण और शस्त्रों के फलों से एक प्रकाण्ड चकाचौंध पैदा हो रही है। हस्तियों की चिंघाड़ और अश्वों की हिनहिनाहट से पृथ्वी दहल रही है। भूगर्भ में कम्प है, और आकाश आतंकित है।
तुरत एक प्रतिहारी को बुलाकर, कुमार ने इस अप्रत्याशित युद्ध घोषणा का कारण पूछा। मालूम हुआ कि पाताल-द्वीप के राक्षस-वंशीय राजा रावण ने अपने देवाधिष्ठित रत्नों के गर्व से मत्त होकर वरुण-द्वीप के राजा वरुण पर आक्रमण किया है। शुरू में जब वरुण की सेनाएँ रावण की सेनाओं से पराङ्मुख होने लगी, तो वरुण स्वयं यद्ध-क्षेत्र में उतर पड़ा। उसने रावण के देवाधिष्ठित रत्नों की अवहेलना कर उसके बाहुबल को ललकारा है। रावण स्वयं उसके सम्मुख लड़ रहे हैं। युद्ध बहुत भीषण हो उठा है। आदित्यपुर वर्षों से पातालाधिपति की मैत्री के सूत्र में बँधा है। रावण का राजदूत सन्देश-पत्र लेकर आया है। आदित्यपुर और विजयार्ध के अन्य कई विद्याधर राजा रावण के पक्ष पर लड़ने के लिए आमन्त्रित किये गये हैं। उसी युद्ध पर जाने के लिए आज आदित्यपुर के सीमान्तर पर सैन्य सज रहा है। महाराज प्रमाद स्वयं कल सैन्य के साथ संग्राम को प्रस्थान करेंगे आदि-आदि। कुमार सुनकर आतुर हो आये। संकेत पाकर प्रतिहारी चली गयी।
...रण-बाघों का घोष चुनौती दे रहा है। शंखनाद और सूर्यनाद से कुमार का वक्ष हिल्लोलित हो उठा। धमनियों का जड़ित रक्त अदम्य वेग से लहराने लगा। त्वरापूर्वक ये लम्बे डग भरते हुए बरामदे में टहलने लगे। शरीर की शिरा-शिरा से गूंज उठा...युद्ध...युद्ध...युद्ध। मांसपेशियाँ कसमसा उठीं। रक्तप्रन्थियों में एक खिंचाव-सा हो रहा है। हृदय की घुण्डी तन रही है, मानो टूट जाएगी ।...ओह, यषों के प्रमाद और मोह से विजड़ित और विषाक्त हो गया है यह रक्त। इसे टूटना ही चाहिए, इसे बहना ही चाहिए...
युद्ध का प्रयोजन, उसका पक्ष, उसकी नैतिकता यह सब पवनंजय के लिए गौण है। प्रधान है युद्ध-युद्ध जो जीवन के संसरण की माँग बनकर प्राण के द्वार पर टकरा रहा है।...नहीं, इस सम्प्रवाह का अवरोध जीवन की अवमानना है, वह पाप है, वह पराभव है। इससे बचकर भागा नहीं जा सकता, इससे मुँह नहीं मोड़ा
9 :: मुक्तिदृत