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क्षणैक चुप रहकर माता ने फिर तजल आँखों से पवन की ओर देखा; उसके कन्धे पर हाथ रख दिया और बोली
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"अपना दुःख माँ से कहने में हार नहीं होंगी बेटा, कहो, कहीं, कह दो, पवन।" कहते-कहते पवनंजय का कन्धा झकझोर डाला और भरां आये कण्ठ में वाणी डूब गयी। एक बार पवनंजय के जी में एक वेग-सा आया कि कह दें, पर फिर दब गया। जरा स्वस्थ होकर बोला
"इसे प्रबल भोगान्तराय का उदय ही माना, माँ, मन का रहस्य तो कंवली जानते हैं। अपने इस अभागे मन को में ही कब ठीक तरह समझ पाया हूँ? यह जीवन ही अन्तराय की एक दीर्घ रात्रि है, और क्या कहूँ। और अपने बेटे के वीर्य और पुरुषार्थ पर भरोसा कर सकी तो यह मान लो कि उसके लिए भोग्य लावण्य इस संसार में न ही जन्मा है और न ही जन्मेगा। अपने से बाहर के किसी पदार्थ का यदि उपकार मैं नहीं कर सकता हूँ, तो उससे खिलवाड़ करने का मुझे क्या हक्र है।... अपने उस चरम भोग्य की खोज में जाना चाहता हूँ, माँ आशीर्वाद दो कि उसे पा सकूँ और तुम्हारे चरणों में लौट आऊँ ।”
कहकर पकनंजय ने माथा माँ के चरणों में रख दिया। माँ की आँखों से चौंसठ-धार आँसू बह रहे हैं। बेटे के माथे पर हाथ रख उन अलकों को सहलाती हुई बोलीं
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त्रिलोकजयी होओ घंटा, पर मुझसे कहते जाओ।"
पवनंजय ने फिर एक बार पैर छू लिये, पर कहा कुछ नहीं। माँ उमड़ती आँखों से आँसू पोंछती ही रह गयी । कुमार ने संकेत से जाने की आज्ञा माँगी, और निःश्वास छोड़कर बिना एक क्षण ठहरे, निर्मम भाव से चल दिये।
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घोड़े पर चढ़कर जब अकेले, अपने महल की ओर उड़े जा रहे थे, तब राह के अन्धकार में दो आँसू टपककर बुझ गये। बिजलियाँ पानी हो गयीं।
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आषाढ़ को अपराह्न ढल रहा है। विजयार्द्ध के सुदूर पूर्व शिखरों पर मेघमालाएँ झूम रही हैं। गिरि वनों में होकर बादलों के बूथ मतवाले हाथियों से निकल रहे हैं। गुलाबो बिजलियाँ कुमारी - हृदय की पहली मधुर पीर-सी रह-रहकर दमक उठती हैं ।
अंजना अपनी छत के पश्चिमीय वातायन में अकेली बैठी है। इन दिनों प्रायः वह अकेले ही रहना पसन्द करती है। इसी से वसन्त भी पास नहीं है। ये युवा वादल उड़ते ही चले जा रहे हैं-वले हो जा रहे हैं। कहाँ जाकर रुकेंगे- कुछ ठीक नहीं
60 मुक्तिदूत