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वाणी सिद्ध हो चली। अनादिकाल के जड़ावरणों में, जिनसे आत्मा रुद्ध हैं, वह वाणां अव्यावाध प्रवेश करती चली।
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उन्हें ज्ञान दान देने का कोई कर्तव्य भाव बाहर से अंजना में नहीं जागा है। उसकी उन्मुखता में ही सहज उन अज्ञानी मानव-प्राणियों के लिए उसका सहवेदन गहरा होता गया है। उसके भीतर से निरन्तर पुकार आ रही है वही उसका संकल्प है और चाचा में फूटकर वही कर्ममय होता गया है। अक्षर-बद्ध और वचन बद्ध किसी निश्चित ज्ञान की शिक्षा देने की चेष्टा उसमें नहीं हैं। उस ज्ञान में संघर्ष सम्भव हैं-वितर्क सम्भव है। पर प्रेम को इस अजस्र वाणी में केवल बोध ही फूटता है-एक सर्वोदयी, साम्य-भावी बोध- जीवनमात्र का मंगल कल्याण ही जिसका प्रकाश है। इस ज्ञान-दान में बुद्धि का अह-गौरव सम्भव नहीं है । 'मैं इन्हें ज्ञान दे रही हूं" यह सतर्क प्रभुत्व का भाव नहीं है। यह दान तो अंजना की विवशता है-उसकी आत्म-वेदना का प्रतिफल है, जो देकर ही निस्तार है। सिखाना उसे कुछ नहीं है वह तो वह स्वयं सीखना चाहती है- स्वयं जानना चाहती है। उसी का नम्र अनुरोध मात्र है यह वाणी - जिसमें से ज्ञान झिरियों की तरह आप ही फूट रहा है। I
निपट अकिंचन और उन्हीं सी निर्बोध होकर अंजना उनसे अपनी बात कहती | आस-पास की यह विशाल प्रकृति, जिसकी कि वे पुत्रियाँ हैं, उसी की भाषा- उसी के संकेत और उपकरणों के सहारे वह अपने को व्यक्त करती है। पहाड़, नदियाँ, चट्टानें, गुफाएँ, झरने, जंगल, जीव-जन्तुओं को ही लेकर जाने कितनी कथा - वात कही जाती हैं- कितने रूपकों का आविष्कार होता है। वे भिल्ल वालाएं अपने जंगली जीवनों में परम्परा से चली आयी कई दुःसाहस की दन्तकथाएँ सुनाती । नरना पशु-पक्षियों के और मानवों के घात-प्रतिघात और संघर्षो के वृत्त उनमें होते। उनके जीवनों का गहन प्रकृत परिचय पाकर अंजना की आत्मीयता सर्वस्पर्शी हो फैल जाती । वह उन्हीं कहानियों को उलट-पुलटकर उनकी हिंस्र क्रूरताओं के बीच-बीच में बड़ी ही स्वाभाविकता से कोई प्रेम के वृत्त जोड़ देती। ये बालाएँ जिज्ञासा से भर आतीं। उनकी निर्विकार चंचल आँखों में सह-वेदन की करुणा छलछला आती । वे अंजना के ही शब्दों में अनायास बोलकर प्रश्न कर उठतीं । क्रीड़ा कौतुक मात्र में अंजना समाधान कर देती। वे जोर-जोर से खिलखिलाकर हँस पड़तीं। गुंजान हँसी से बनस्थली गूंज उठती। वे बातें उन्हें कभी नहीं भूलतीं। वे तो मानव प्रकृति के तट पर लिखे गये अक्षर हैं, जो सदा ध्वनित होते रहते हैं-इन झरनों में इन हवाओं में, इन झाड़ियों में ।
किसी उत्सव के दिन यदि वे अंजना को मां जातीं तो वन की फूल-पत्तियों से उसका अभिषेक कर देतों पैरों में घुंघरू बाँधकर आतीं और अंजना के चारों ओर वृत्त में झूमर देकर नाचती, हिण्डोल-भरे मदमाते रागों में अपने जंगली गीत
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