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राजोपवन के दक्षिण छोर पर जो खेतों का विस्तार है, उसके उस किनारे कृषकों और गोपों के छोटे-छोटे गाँव बसे हैं। वहीं थोड़े-थोड़े फ़ाँसले से राजपरिवार के सेवकों की बस्तियों हैं। सबकी अपनी स्वतन्त्र धरती है, गोधन हैं। राज-सेवा वे स्वेच्छतया करते हैं। राजा और राज के प्रति उनमें सहज कर्तव्य का भाव है। उनका विश्वास है कि राजा प्रजा के माता-पिता हैं; जीवन, धन और धरती के रक्षक हैं, पालक प्रजापत्ति हैं।
कुछ वर्ष पहले एक गोप-बस्ती की सीमा पर, एक शिशिर के सवेरे, कुहरे में से आती हुई एक साध्वी दीखी थी। सालवन के तले पनघट और वापिकाओं पर पानी भरती हुई गोप-वधुएँ उसे कौतूहल की आँखों से देखती रह गयीं। निकट आकर वह साध्वी खेत में बने एक चबूतरे पर बैठ गयी। पहले तो वे यधुएँ मारे अचरज के ठिठकी रहीं, फिर कुछ हँसकर परस्पर काना-फसी करने लगीं। साध्वियाँ तो आती ही रहती हैं-पर ऐसा रूप? कोई देवागना न हो।
एक दूसरी से जुड़ी-गीं वै वधुएँ पास सरक आयीं। कुछ दूर खड़ी रहकर वे देखती रह गयीं-अवाक और स्तब्ध । विचित्र है यह साध्वी! बालिका-सी लगती है। गम्भीर हैं, पर रह-रहकर चंचल हो जाती है। बरफ़-सी उजली देह पर, दूध की धारा-सा दुकूल है; पीठ पर विपुल केश-भार पड़ा है, जो गालों को ढकता हुआ कन्धों
और भुजाओं पर भी छाया है। वह बड़ी-बड़ी सरल आँखों से उनको ओर देख मुसकरा रही है, जैसे बुला रही हो। पर न हाथ उठाकर संकेत करती है, न पुकारती है।
मुहूर्त-भर में ही वे सब वधुएँ जाने कब पास चली आयीं। भूमि पर सिर छुआकर सबने प्रणाम किया।
"अरे-अरे, छिः छिः-यह क्या करती हो! मुझे लजाओ नहीं। क्या मैं तुमसे बड़ी हूँ? मैं तो तुमसे छोटी हूँ, और तुम्हीं में से एक हूँ तुम्हारी छोटी बहन, क्या मुझे नहीं पहचानती...?"
सब अवाक आश्चर्य से उस ओर देख उठीं । सचमुच जैसे वर्षों से पहचानती हैं; कहीं देखा है कभी, पर याद नहीं आ रहा है। एक निगढ़ स्मृति के संवेदन से रोम-रोम सजल हो आया। ये आँखें, यह पारदर्शी मुसकराहट । और सबसे अधिक आत्मीय है इस कण्ठ की वाणी । पर विचित्र है यह साध्वी। अरे, इसके हाथ में क्लय हैं, और भाल पर तिलक है! साध्यियों के वलय और तिलक तो नहीं होता। पर मन इसे देखकर बरबस श्रद्धा से भर आता है, पता पूछने का जी ही नहीं होता। केवल एक आश्वासन भीतर अनायास जाग उठता है। ___ “ह...हाँ...हाँ मैं समझ गयी हूँ, तुम्हारे मन में क्या है...पूछ देखो न, तुम्हारे मन की बात जानती हूँ कि नहीं!"
मुक्तिदूत ::77