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ऐश्वर्य: यह अपार परिंग्रह का हमारा स्वामित्व..पर कौन उसे रख सका है: कौन उस पर अपने अधिकार को अन्तिम मुद्रा लगा सका है। वस्तु कोई किसी को नहीं है। सत्ता मात्र स्वतन्त्र है। यह हमारा ममत्व और स्वामित्व का मान ही तो मिथ्यात्व है। आत्मा की सम्बक-दर्शनमयी प्रकृति का पात यहीं होता है। मोहिनी तीव्र होती जाती है, हमारा ज्ञान-दर्शन ममत्व से आच्छन्न हो जाता है। यही ममत्व है हमारी समाज-व्यवस्था और हमारे नियम-विधान का आधार। इसी पर खड़े हैं हमारे कुल, शील, मर्यादा और प्रतिष्ठा के ये भव्य प्रासाद । कितना कच्चा और भ्रामक है इस लोकाचार के मूल्य का आधार! लोकाचार को मुक्तिमार्ग के अनुकूल करना होगा; प्रगतिशील जीवन की माँगों के अनुरूप लोकाचार के मूल्यों को बदलते जाना होगा। निश्चय के सत्य को आचरण व्यवहार के तथ्य में उतारना होगा।"
कुछ देर चुप रहकर फिर अंजना बोली
"...जो सबका है, उसका संचय यदि हमने अपने लिए कर लिया है, तो इसमें गौरव करने योग्य क्या है? परिग्रह तो सबसे बड़ा पाप है! उसमें सारे पाप एक साथ समाये हैं। असत्य और हिंसा उसकी नींव में हैं। माना कि अपने बाहुबल से हमने इस ऐश्वर्य, राज्य, सम्पदा का अर्जन किया है। पर क्या हमारा यह स्वामित्व का अभिमान, आस-पास के जनों में, जिन्हें हमने उनसे वंचित कर दिया है, सूक्ष्म हिंसा, ईर्ष्या, संघर्ष नहीं जगाता? और क्या हम भी निरन्तर उसी आत्म-हिंसा के घात से पीड़ित नहीं हैं। आस-पास मान और तृष्णा के संघर्ष सतत चल रहे हैं। क्या इस संघर्ष की परम्परा को अपने क्षुद्र मान-ममत्व से धार देना इष्ट हैं: क्या वह मनुष्योचित है? क्या इस हिंसा का संचय हम देखती आँखों से करते हो जाएँगे?. ..नहीं, सत्य मार्ग का पन्धी इस बर्बरता के सम्मुख चुप नहीं रह सकता । मनुष्य के इस पीड़न और पतन को-इस आत्मघात को-वह खली आँखो नहीं देख सकेगा। संघर्ष के इन दुश्चक्रों को उलटना होगा-तोड़ना होगा। जीवन को इसके बिना परितोष और समाधान नहीं है। निखिल में ऐक्यानुभाव और साम्य स्थान करने के लिए अपना आत्मोत्सर्ग हप करते जाएँ--यही प्राण का चिन्तन अनुरोध है। भीतर वही हमारी अनुभूति हो-और बाहर वही हमारा कर्म:'
"पर जो व्यवस्था है, वह तो अपने-अपने पुण्य-पापों और कर्मों के अधीन है, अंजना! क्या हम दूसरों के कर्म को बदल सकते हैं?
"कर्म की सत्ता को अजेय और अनिवार्य मानकर चलनं को कह रही हो, जीजी तब मान लें कि मनुष्य उस कर्म सत्ता का खिलौना मात्र है? और यह भी, कि मनुष्य होकर उसका कृतित्व कुछ नहीं है...? फिर जड़ से ऊपर होकर चंतना की महानता का गुणगान क्यों है? फिर तो मुक्ति और ईश्वरत्व का आदर्श निरी मरीचिका है। हमारे भीतर मुक्ति का अनुरोध निरी क्षणिक छलना है। और असंख्य महापानव जो उस सिद्धि को पा गये हैं, उनकी ये गाथाएँ और ये पूजाएँ मिथ्या
86 :: मुक्तिदूत