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"...उनका और तुम सब परिजनों का ऋण चुकाने के लिए ही तो इस महल में है, जीजी। और उनकी कृतज्ञ हूँ कि परित्यक्ता बभू को उन्होंने यह रत्नों का महल सौंप रखा है, और उसे वे इतना प्यार करती हैं, इतना आदर देती हैं। पर मेरा ही दुर्भाग्य है कि इस महल को मैं अब रख नहीं सकुंगी। उनकी इस कृपा
और प्रेम के योग्य मैं अपने को नहीं पा रही हूँ। मैं तो बहुत ही अकिंचन हूँ और बहुत ही असमर्थ हूँ यह सब झेलने के लिए...
"इस राजमहल में रहकर इसकी और इसके लोकाचार की मर्यादा को मैं नहीं लोपना चाहूँगी। तब देखतो हैं कि इस घर में अब मेरे लिए स्थान नहीं है। यह छोड़कर मुझे चले जाना चाहिए। और कोई रास्ता मेरे लिए चुनने को नहीं हैं। इस महल में रहना है, तो यहाँ को मर्यादा तोड़ने का अधिकार शायद मुझे नहीं है। पर मेरे निकट वह असत्य है और उसे मैं शिरोधार्य नहीं कर सकूँगी... _ महादेवी के चरणों में मेरा प्रणाम निवेदन करना और उन्हें कह देना कि परित्यक्ता अंजना के इतने बार्षों के गुस्तर अपराध को क्षमा कर दें। परित्यक्ता होना ही अपने आपमें क्या कम अपराध है? फिर मुझसे तो मर्यादा का लोप भी हुआ है! उसके लिए मन में बहुत अनुताप है। अब मेरा यहाँ रहना सर्वथा अनुचित होगा, शायद वह पाप होगा, अपने लिए भी और उनके लिए भी। जितनी जल्दी हो सकेगी, शीघ्र ही मैं यहाँ से चली जाऊँगी, उस राह पर जो मेरे लिए सदा खुली है...।"
आँस भीतर ही झर रहे हैं यह कण्ठ-स्वर ऐसा लग रहा है, जैसे किसी गफा में निर्धार का घोष हो। पर वसन्त की आँखों से तो टप-टप आँसू टपक रहे थे।
“...छिः जीजी, तुम रो रही हो...? अपनी अंजना पर अभिमान नहीं कर सकतीं, तो क्या उसे प्यार भी नहीं कर सकती? इतनी अवशता क्यों अंजना अकिंचन है सही, पर उसे इतनी दयनीय मत मानो जीजी, उसके भाग्य पर और उसके कर्म पर अविश्वास न करो...?"
__ अंजना चुप हो गयी और मुँह फेरकर सरोवर के जल-प्रसार पर दृष्टि फैला दी। थोड़ी देर बाद चुपचाप दोनों बहनें उठकर वहाँ से साथ-साथ चल पड़ी। राह में बराबर चल रही हैं, पर एक-दूसरी की ओर देखने का साहस उन्हें नहीं है।
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पूर्वाह्न में अपने पथ पर, अकेला प्रहस्त, अजितंजय प्रासाद के मार्ग पर अग्रसर है। चारों ओर शरद की नीलमी श्री फैली है। प्रकृति प्रसन्न है, शीतल और सजल, तरुणी धूप मुसकरा रही है। इस निर्मलता की आरसी में, प्रहस्त ने पाया कि उसकी सारी अन्तर्भूत व्यथाएँ झलमला उठी हैं।
90 :: मुक्तिबूत