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को कुसुम बेला हो, इस सीमान्तर आत्मध्यान के लिए अंजना का आना ध्रुव की
तरह अटल था ।
ये खरगोश - शिशु अंजना की बाँहों के सहारे, उस सर्व काम्य वक्ष पर लिपटकर आश्वस्त हो जाते। एक आकर्षण की हिलोर-सी आती। वह चल पड़ती मुर्गों के उस लोला - कानून में । मृग- शावक उसकी कटि पर झूमते, अन्य मृग- मृगियाँ उसके उड़ते हुए दुकूल को खींचते । अंजना खरगोशों को आँचल में ढाँप लेती। आस-पास झूमते मृग-मृगियों के गलबहियों डालकर उनकी गर्दन और पीठ पर अपनी गर्दन डाल देती । गालों और आँखों से उनके शरीर के मृदु रोओं का रभस करती। अंग-अंग उन पर निछावर होता। उनमें आँखें ली जाने किस चिरकाम्य रूप का दर्शन उनमें हो जाता। निराकुल विदेह सुख में मूर्च्छित होकर वह मुसकरा देती निगूढ लज्जा से अंग-अंग पुलक सजल हो उठता। आह, कौन छू गया है... ? अनुभूति है यह स्पर्श - चिर दिन से जिसकी चाह प्राणों में घनी होती गयी है !
यॉ ही उन पशुओं के साथ निर्लक्ष्य भटकली, खेलती वह उस अरुणाचल तक चली जाती। कभी-कभी उस पहाड़ी पर नीलगिरि की वनाली में पहाड़ी के उस पार के छुटुक फुटुक बिखरे भिल्ल ग्रामों की वनकन्याएँ मिल जातीं। वर्षा की नदियों-सी वे श्यामला हैं। कच्चे रसालों की रस भार नम्र स्निग्ध घटाओं-सा उनका यौवन है---अनावृत और अबन्ध्य । गिरि घाटियों के हिंस्र -जन्तु संकुल प्रदेशों में वे अभय विचरती हैं। दुर्जेय और दुरन्त है उनका कौमार्य तीर के फल पर परखे जानेवाले वीर्य का वे वरण करती हैं। कांटे पर वे नाममात्र का बसन बांध लेती हैं या फिर वल्कल । ऋतु-पर्वो पर वे पतों के बसन पहन आती हैं, कानों में कलियों और कच्चे फलों के झुमके और माथे पर तथा गले में जंगली फूलों की माला । उनकी उद्दण्ड बाँहों में पार्वत्य उपलों के वलय पड़े रहते और पैरों में काँसे की कड़ियाँ ।
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अनायास वे अंजना की सहेली बन गयी थीं। कहानी-भर जिसकी वे अपनी दादियों से सुनतीं, और निरन्तर जिस वन-लक्ष्मी की उन्हें खोज थी, उसे ही शायद वे एकाएक पा गयी हैं - ऐसा उन्हें आभास होता। वह 'वन-लक्ष्मी' किस दिशा से कब आ जाती है, वे खोजकर भी पता नहीं पा सकी हैं। आदित्यपुर को युवराज्ञी उनकी कल्पना के बाहर है, फिर उससे उन्हें प्रयोजन ही क्या हो सकता है। राजोपवन की सीमा उनके लिए वर्जित प्रदेश है, सो उस ओर से वे उदासीन हैं। कभी-कभी दूर से ही कौतूहल- भर करके वे रह जाती हैं।
थोड़े ही दिनों में अंजना ने उनकी प्रकृत भाषा को सहज हो अपना लिया। उनकी सारी अन्तः प्रकृति से उसका निसर्ग परिचय होता चला। वे अपनी ही भाषा में अंजना की बातें सुनतीं। जन्मों के अज्ञान की अँधेरी गुहाओं का तम चिदने लगता। उसके भीतर अंजना के शब्द प्रकाश के बिन्दुओं की तरह फूटने लगते।
7.1 : मुक्तिदूत