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है। इसी तरह जीवन के ये दिन, मास, वर्ष बीतते चले जा रहे हैं- विराम कहाँ है-कौन जानता है?
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उन्हीं बादलों के आवरण में जीवन के बीते वर्षो की सारी स्मृतियाँ स्वप्न-चित्रों-सी सजरत होती गयीं। कहाँ हैं महेन्द्रपुर के वे राज- प्रासाद? कहाँ है माता-पिता की वह बात्सल्यमयो गोदी अंजना की एक-एक उमंग पर स्वर्गों का ऐश्वर्य निछावर होता था। सुर-कन्याओं-सी सौ-सौ सखियाँ उसके एक-एक पद-निक्षेप पर हथेलियों बिलातां। और वे बालापन के मुक्त आमोद-प्रमोद और क्रीड़ाएँ ! दन्ति पर्वत की तलहटीवाले 'ऐन्द्रिला' उद्यान में वे बादल - बेलाएँ, वह कोयल की टेरों के पीछे दौड़ना, वह बादलों में प्रीतम का रथ खोजने की सखियों में होड़ें, यह वापिकाओं के पालित हंसों के पंखों पर बाहन, वे वर्षा, वसन्त और शारदोत्सव के विस्तृत आयोजन, वह वसन्त की सन्ध्याओं में दन्ति पर्वत के किसी शिखर पर अकेले बैठकर मुक्त हवाओं के बीच वीणा वादन, वह 'मादन-सरोवर' के प्राकृतिक मर्मर घाटों में स्नान-केलि के आनन्द !... सपनों का एक जुलूस सर आँखों में तैरता निकल गया। दूर-कितनी दूर चला गया है वह सब लगता है, विस्मृति के गर्भ में सोये, जाने किन विगत भवान्तरों की कथाएँ हैं वे प्रमाद के रिक्त क्षण की एक छलना-भर है वह उससे अब कहीं उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। पर उस सारे अपनत्व को त्यागकर, जिसके पीछे-पीछे वह इस परिचित अनात्मीय देश में चली आयी है - वह कीन है, और वह कहाँ है? वह उसे ठीक-ठीक पहचानती भी नहीं है, पर खुना है उस प्रीतम ने उसे त्याग दिया है। लेकिन इस क्षण तक भी इस बात की प्रतीति उसे नहीं हो रही है। भीतर की राह वह आ रहा है और अन्तर के वातायन पर उसकी आती हुई छवि कभी ओझल नहीं हुई है...!
कि एकाएक अंजना को दृष्टि अपनी देह पर पड़ गयी। वे सुगोल चम्पक भुजाएँ परस के रस से ऊर्मिल हैं। उस वक्ष के उभार में वे आकाश की गुलाबी बिजलियाँ बन्दिनी होकर कसक उठी हैं। घिरले बादलों की श्यामलता में एक विशाल पुरुषाकृति के आविर्भाव ने चारों ओर से उसे छा लिया है। अंग-अंग रभस की एक विकल उत्कण्ठा में टूट रहा है।
और न जाने कब कौन उसे हाथ पकड़कर कक्ष में ले गया। यह उन मर्मर के हंसों की ग्रीवा से गाल सहलाती हुई मुग्ध और बेसुध हो रही हैं। बिल्लौरी सिंहासन के कास के उपधानों को वक्ष से दाबकर कस-कस लेती है। कक्ष की दीवारों, खम्भों, खिड़कियों के परदों से अंगों को हल्के-हल्के छुहला सहलाकर वह सिहर उठती है। और जाने कब वह उस पर्यक की शय्या पर जा लेटी, जिसे उसने आज तक हुआ नहीं था । वक्ष को दाबकर वह औंधी लेट जाती है। समूचे विश्व का देहपिण्ड एकबारगी ही मानों अपने पूर्ण आकर्षण से उसे अपने भीतर खींचता है। एक प्रगाढ़ आलिंगन की मोह-मूच्छा में वह डूब गयी है। और वल्लभ की भुजाओं
मुक्तिदूत : 15