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नहीं है। पर बहुत दिनों से गम्भीर हो गयी अंजना तिरस्कृता, परित्यक्ता अंजना को आज यह क्या हो गया है?
और वह भागती हुई अंजना झाड़ के तनों से लिपट जाती है- उन्हें बाहुओं में कस-कस लेती है। झाड़ की कठोर छाल से गालों को सटाकर हौले-हौले रभस करती हैं। डालों पर झूम आती है-और झूमते हुए तरु-पल्लवों को पलकों से दुलराती है। वन वल्लियों, तृणों और गुल्मों के भीतर घुसकर धप् से उनमें लेट जाती है-पालों से, भुजाओं से, कण्ड से, दिलार से, उन बतियों का हलाती है- सान्ती है, चूमती हैं, पुचकारती है- वक्ष में भर-भरकर उन्हें अपने परिरम्भण में लीन कर लेना चाहती हैं। विराट् स्पर्श के उस सुख में यह विस्मृत, विभोर होकर चारों ओर लोट रही है। और जाने कब तक यह लीला चलती रही
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साँझ हो रही है। वर्षा से धुले उजले आकाश में अंगूरी और दूधिया बादलों के चित्र बने हैं। अंजना ने कक्ष में इष्टदेव के बिम्ब के सम्मुख घी का प्रदीप जला दिया। धूपायन में थोड़ा धूप छोड़ दिया । वसन्त के साथ जानुओं पर बैठकर उसने विनीत स्वर में अरहत् का स्तवन किया। अन्त में वन्दन में प्रगत हो गयी और बोली
"हे निष्प्रयोजन सखे! हे अशरण आत्मा के एकमेव आत्मीय! तुम चराचर के प्राण की बात जानते हो अणु-अणु के संवेदन तुम्हारे भीतर तरंगायित हैं। बोलो, तुम्हीं बताओ, क्या मुझसे यह अपराध हुआ है? किस भय का यह अन्तराय है और किस जन्म में किसको मैंने दारुण विरह दिया है - इसकी कथा तो तुम जानो। मैं अज्ञानिनी तो केवल इतना ही जानती हूँ कि मेरा प्रेम ही इतना क्षुद्र था कि वह 'उन' तक पहुँच ही न सका वह उन्हें बाँधकर न ला सका, इसमें उनका और किसी का क्या दोष है?"
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"पर अपने इस चराचर के निःसीम साम्राज्य में भी क्या मेरे इस क्षुद्र प्रेम को मुक्ति नहीं दोगे, प्रभु देखो न ये छोटी-छोटी वनस्पतियाँ, तृण-गुल्म, पशु-पक्षी, कीट-पतंग, जड़-जंगम सभी अपना प्रेम देने को मुक्त हैं। फिर मैं ही क्यों आत्मघात करूँ, तुम्हीं कहो न? मनुष्य की देह में नारी की योनि पाकर जन्मी हूँ, कोमल हैं, अवलम्बिता हूँ और देना ही जानती हूँ, क्या यही अपराध हो गया है मेरा? क्या पुरुष नारी के अस्तित्व की शर्त है और उससे परे होकर क्या उसका कोई स्वतन्त्र आत्म-परिणमन नहीं। यही धृष्ट जिज्ञासा बार-बार मन-प्राण को बींध रही है अन्तर्यामिन् मुझ अज्ञानिनी बाला के इस पागल मन का समाधान कर दो।"
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अंजना की अधमुँदी आँखों में से आँसू चू रहे हैं। बसन्त स्तब्ध है, अंजना के साथ वैसी ही ऐकात्म्य होकर, साधु-नयन प्रार्थना में अवनत है। तव आहादित होकर अचानक अंजना बोल उठी
"उत्तर मिल गया जीवी आँखें खोलो, प्रभु ने...मुसकरा दिया है."
मुक्तिदूत 167