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शक्तियों उनमें अभिनिहित हैं। वे अभी-अभी शंख फूंक देने को आतुर हो पड़े हैं। वे एक शंख उठा लेते हैं। पर किस दिशा के स्वामी को जगाएँ? उन्हें कुछ भान नहीं हो रहा है, कुछ सूझ नहीं पड़ रहा है। उन्होंने अपने हाथ के शंख को गौर से देखा-उस पर एक ध्वजा में मकर की आकृति चिह्नित है! ओह,-मकर-ध्वजः कुमार ने फूंक देना चाहा वह शंख पूरे जोर से। पर साँस मानो रुद्ध हो गयी है या कि शंख ही मूक हो गया है। कुमार के अंग-अंग में बिजती-सी तड़तड़ा उठी। उन्होंने दूर के एक खम्भे को लक्ष्य कर वा शंख ज्ञोर से दे मारा । पर वह खम्भे पर न लगकर काँसे के एक विशाल घण्टे पर जा लगा। अप्रत्याशित ही घण्टे का गुरु-घोष पृथ्वी-गर्भ में गूंजकर लहराने लगा।
बहुत दिनों की प्रपीड़ित और छटपटायी हुई कषाय प्रमत्त हो उठी। अहं की मोहिनी नंगी तलवारों-सी चमचमा उठी। जाने कब कुमार ने पानी-सा लहरीला एक खड्ग उतारकर शुन्य में बार करना शुरू कर दिया। सें...सू करती-तलवार की विकलता पृथ्वी की उण्डी और निविड़ गन्ध में उत्तेजित होती गयी ।...शरीर की स्नायुएँ मस्तिष्क के केन्द्र से जैसे च्यत हो गयी हैं। तलवार खम्भों के पत्थरों से टकराकर उस अकाट्यता से कुण्ठित हो, और भी कट और भी निशान्त हो जाती है। वह नहीं मानेगी...जब तक वह उस निरन्तर कसक रहे, दिन-रात पीड़ित करनेवाले मर्म को चीर नहीं देगी! वह तलवार प्रबलतर वेग से बेकाबू सनसनाने लगी। शून्य में कहीं भी घाय नहीं हो सका है-मात्र यह निर्जीव खम्भे के पत्थरों का अवरोध टकरा जाता है-उन्न...उन्न...!
और खच्च से यह आ लगी बायें पैर की पिण्डली पर।...कोई मांसल कोमलता बिंध गयी है। कुमार के चेहरे पर एक प्रसन्नता दौड़ गयी। और अगले ही क्षण पसीने में तर-ब-तर हाँफते हुए पवनंजय सक्कर खाकर धप से धरती पर बैठ गये। घाव पर निगाह पड़ी-खन की एक पिंचकारी-सो छुट गयी है।
ओह, अपनी तलवार से अपना ही घाव उफ...शस्त्र...हिंसक, बर्बर शस्त्र! कितनी ही बार शस्त्रों में उन्हें अविश्वास हुआ है। ये हिंसा के उपकरण? कितनी ही बार उन्हें इनसे घोर ग्लानि और विरक्ति हुई है। पर कौन-सी मोहिनी हैं जो खींच लाती है? वे फिर-फिर इनसे खेलने को आतुर हो उठते हैं। हिंसा की विजय, विजय नहीं, पर आत्मघात है! वे निःशस्त्र जप-यात्रा के राही हैं; इसो से न क्या उन्होंने उस दिन उस पर्वत की अतलान्त अँधेरी खाई में, कौतुक मान में, अपनी तलवार खग-यष्टि से निकालकर फेंक दी थी?
...खून जख्म से बेतहाशा बहने लगा। कुमार को अपने ऊपर तरस आ गया-दया आ गयी ।...लि. दवा! और वह भी अपने ऊपर! नहीं, वे नहीं करेंगे कोई उपचार इस जख्म का। दया वे नहीं करेंगे अपने ऊपर। दचा कायरता की पुत्री है ! पवनंजय और कायर हो, इस ज़रा से आघात पर!
21 :: मक्दिन