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अंजना तने पर से उस मयूर को अपने वाहु में भरकर नीचे उतार लायी है। सखियों के आश्चर्य पा. मा की सीप ही है। अंग शिला पर की है। वह मयूर उसके बक्ष पर आश्वस्त है। आस-पास सखियाँ पैर फैलाये बैठी हैं। मयूर-मयूरियों का झुण्ड चारों ओर, प्रफुल्ल नील कमलों के वन-सा, पूर्ण उल्लसित और चंचल होकर नाच उठा।
अंजना के जी में आया, उसने क्यों इस मयुर को बन्दी बना रखा है? ओह, यह उसका मोह है। उसने उसका आनन्द छीन लिया है! अंजना ने तुरन्त उस मयूर को छोड़ दिया। पर वह उड़ा नहीं अपना नीला पसृण कण्ठ अंजना के गले के चारों
और डालकर उसके वक्ष पर चंचु गड़ा दी। जाने कितनी देर उस ग्रीवालिंगन में वह पक्षी विस्मृत, विभोर हो रहा। चारों ओर सखियाँ ताली बजा-बजाकर बादल सग के गीत गाने लगी। केकाओं की पुकारें फिर पागल हो उठीं।
कि एकाएक अंजना की गोद से वह मयूर उतरकर नीचे आ गया और अपने संगियों के बीच अनोखे उन्माद से नाचने लगा। उसके आनन्द-सास्य को देख दूसरे मयुर-मयूरी भी अंजना की ओर दौड़ पड़े। सखियों उन्हें पकड़ना चाहती हैं पर ये हाथ नहीं आते हैं। अंजना उन्हें पकड़ना नहीं चाहती-पर वे उसके शरीर पर चढ़ने में ज्ञरा नहीं हिचक रहे हैं। उसके आस-पास घिरकर अपनी ग्रीया से उसकी जंघाओं, उसकी मुजाओं, उसके वक्ष से दुलार करते हैं और फिर नीचे फुदककर नाचने लगते
कि इतने ही में पुरवैया हवा प्रवल वेग से बहने लगी। स्तब्ध बनाली हिल उठी। झाड़ झाय-झीय, साँय-सॉय करने लगे। और थोड़ी ही देर में वृष्टि-धाराओं से सारा वन-प्रदेश ममरा उठा। मयूरों की पुकारें पागल हो उठी-वे चारों ओर फैलकर मुक्त लास्य में प्रमत्त हो गये। देखते-देखते मूसलाधार वां आरम्भ हो गयी। हवाएँ तुफ़ान के वेग से सनसनाने लगीं। झाड़ों की डालियों चूँ-चड़ड़ बोलने लगीं, मानो अभी-अभी टूट पड़ेंगी। घेणु-वन की बाँसुरी में सू-करता हुआ मेघ-मल्लार का स्वर बजने लगा। बादल उद्दाम, तुमुल घोष कर गरज रहे हैं-बिजलियाँ कड़कड़ाकर दूर को उपत्यकाओं में टूट रही हैं। एक अग्नि-लेखा-सी चमककर वन के अँधेरे को और भी भयावना कर जाती है। __वसन्तमाला के होश गुम हो गये। आज उससे यह क्या भूल हो बेटी है। ऐसे ददिन में वह अंजना को कहाँ ले आयी है: महादेवी को पता लगा तो निश्चय ही अनर्थ घट जाएगा। अंजना अब महेन्द्रपुर की निरंकुश राजकन्या नहीं है, वह अब आदित्यपुर की युवराज्ञी है। और तिस पर त्यक्ता और पदच्युता है। उसके लिए ये मुक्त कोड़ा-विहार? और वह भी इस भयानक निर्बन्ध ऋतु में? राजोपवन की सीमा के बाहर? क्षण मात्र में हो ये सारी बातें वसन्त के दिमाग में दौड़ गयों।
मुक्तिदूत :: 65