________________
"तो जीजी, मुझे ले चलो न उस जम्बू-वन में । मेरा जी अब यहाँ बहुत ऊब गया है। चलो न, जस जम्बू-वन तक ज्ञरा घुम ही आएँ ।"
अंजना की इस अनुनय में बड़ी ही अवशता है। इस प्रस्ताव को सुनकर वसन्त के सुख और आश्चर्य की सीमा नहीं थी। कई दिनों से अपने आप में बन्द और मूक अंजना सरल बालिका-सी खुल-खिल पड़ी है। विषाद का वह घनीभूत कोहरा मानो फट गया है। अंजना निर्मल जलधारा-सी तरल और चंचल हो उठी है। वसन्त ने प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया। चलते-चलते कुछ सखियों और वासियों को
और भी साथ ले लिया। अब तक अंजना केवल प्रातः-सायं सुमेरु चैत्य में देव-दर्शन के लिए जाती और लौट आती थी। आज पहली ही बार उसने राजोपान की सीमा को पार किया।
वानीर, चेतस और जामुनों की सघन वनानी में होकर एक नल्ला बठता था, जो पुण्डरीक सरोवर में दूर को पार्वत्य नांदयो का जल लाता था। इसके किनारे झूम रहे दीर्घकाय वानीर-बनों की छाया में नल्ले का जल सदा पन्ने-सा हरा रहता। दोनों किनारों के मिलनातुर वृक्षों के बीच आकाश का पथ आँखमिचौली खेलता। उसमें तैरते प्रवासी बादल नल्ले के हरित-श्याम जल में छाया डालते।
जम्यू-वन की संकुल घटाओं में बादलों की अँधेरी स्तब्ध खड़ी है। सयर और मयूरियों के झुण्ड चारों ओर बिखरे हैं। उनमें से कुछ किनारे के हरियाले प्रकाश में पंख फैलाकर नाच रहे हैं। और एकाएक वे शीतल स्वरों में पुकार उठते हैं। वन की अँधेरी गँज उठती है। फिर बादल घुमड़ उठते हैं।
मानवों का पद-संचार और आवाज सुनकर वे झुण्ड थोड़े चौक़ा हो गये। तितर-बितर होकर ये चारों और भागने लगे। अंजना बालिका-सी उनसे खेलने को मचल पड़ी। वह उन्हें भयभीत नहीं करना चाहती-पर उसका प्यार जो आज उन्मुक्त हो गया है।
किनारे की एक खजूर नत्ले के जल पर झुक आयी थी। उस पर खड़ा एक मयूर पंख फैलाये, अपनी सम्पूर्ण शोभा की नीलाभा खोलकर नाच रहा है. अंजना उस खजूर के तने पर जा पहुंची। उन पैरों की अछूती कोमलता में वे खजूर के काँटे गड़ नहीं रहे हैं। सब कुछ उस मार्दव में मानो समाया ही जा रहा है......
एक हाथ से, पास ही झुके हुए एक वृक्ष की डाल पकड़कर अंजना बैठ गयी और दूसरी बाँह उसने उस नाचते मयूर की ओर फैला दी। वह बुरा नहीं वह सहमा नहीं। फिर एक बार एक अपूर्व निगूढ़ उल्लास से नवीनतम भागमा में चि उठा।
और नाचते-नाचते वह अंजना की बाँह पर उतर आया। उन पंखों में मर पाकर अंजना ने आँखें मैंद ली; मयूरों के झगड फिर विहलता से प्रकार उठे। वसन्त की
आँखों में सुख के आँसू आ जाना चाहते हैं। सभी सखियाँ आनन्द, क्रीड़ा और हास्य में मग्न हो गयीं। मयूरों के पीछे दौड़ती हैं-पर वे हाथ नहीं आते हैं। .
fit :: मुक्तिदूत