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के आलोड़न का अन्त नहीं है। कि देखते-देखते स्पर्श का वह अतल सुख विछोह की अशेष वेदना में परिणत हो गया। वक्ष को मांसल कारा को तोड़ने के लिए प्राण छटपटा उठे। उसकी शिरा-शिरा, रक्त का बिन्दु-बिन्दु, विद्रोही चेतन की इस चिनगी सं अंगार हो उठा और देखते-देखते देह की सम्पूर्ण मांसलता मानो एक पारदशों अग्नि-पिण्ड में बदल गयी। पर वह जो खींच रहा है-सों खींचता ही जा रहा है। उसमें पर्यवसित होकर वह शान्त और निस्तरंग हो जाना चाहती है।
___ निरन्तर बह रहे आँतुओं के गीलेपन से उसे एकाएक चेत आया। वक्ष के नोथै कोमल शय्या का अनुभव किया। पाया कि वह कक्ष में है-वह उस विलास के पर्यक पर है। कौन लाया है उसे यहाँ? ओह, वचक माया; वह अपने ही आप से भयभीत हो उठी। यह उठकर भागी और फिर उसी वातायन पर जाकर बैठ गयी।
कि लो, वे पर्वत-पार्टियाँ उन घटाओं में इब गयी हैं। वन-कानन खो गये हैं। अंजना ने पाया कि वह पृथ्वी के छोर पर अकेली खड़ी है, और चारों ओर मेघों का अपार सिन्धु उमड़ रहा है। उस महा जल-विस्तार में श्वेत पंछियों की एक पाँच उड़ी जा रही है। अंजना की आँखें जहाँ तक जा सकीं-उन पछियों के पीछे वे उड़ती ही चली गयीं। और देखते-देखते बे दृष्टि-पथ से ओझल हो गये। आँखों में केवल शुन्य के बगले उठ-उठकर तैर रहे हैं। उस अतलान्त शून्य सललता में वह डूबती ही गयी है कि उन पंछियों को पकड़ लाए। अपनी बाँहों पर बिठाकर वह उनसे देश-दंश की बात पूछेगी, जन्मान्तरों की वार्ता जानेगी। अरे वे तो मुक्ति के देवदूत हैं-इसी से तो इस दुर्निवार बादल-बेला में वे ऐसे हल्के पंखों से उड़े जा रहे हैं!
अंजना अपने भीतर जितनी ही गहरी इच रही है, बाहर वह उत्तनी ही अधिक फैल रही है।...वह विजयाद्धं की बादल-भरी उपत्यकाओं में खेलने चली आयी है। वह उसके रत्नमय कटों की बेदियों में बैठकर गान गा रही है। वह एक शृंग से दूसरे शृंग पर छलौंग भरती चल रही है। अनुस्तंच्य झरनों को बह चुटकी बजाते लाँध जाती है। अगम्य खाइयों, खन्दकों और घाटियों को यह लीला मात्र में पार कर रही है। वह विजयार्द्ध की मेखला में अबाध परिक्रमा देती चल रही है। चित्र-व्याध, सिंह, भालु और अष्टापद आकर उसके पेर चाटने लगते हैं- अपनी सुनहरी-रूपहरी अयालों से उसके अंग सहलाते हैं। अनेक जीव-जन्तु, पशु-पक्षी, उस देह से लिपटकर-उसका दुलार पा चते जाते हैं। पलक डालने और उठाने में कितनी ही विद्याधरों की नगरियाँ दृष्टि-पध में आती हैं और निकल जाती हैं। और रह-रहकर ये पक्षी उसे याद आते हैं। उसकी आकुलता अन्तहीन हो जाती है। और वह अपनी यात्रा में आगे बढ़ती ही जाती है। कितने पर्वत, पृथ्वियों, सागरों और आकाशों को पार कर ब पंछी जाने किस दिशा के नील नीड़ में जाकर छुप गये हैं।
...मुक्त केशराशि कपोलों पर छाती हुई वक्ष पर लोट रही है। अंजना का माथा वातायन के खम्भे पर दुलका हैं। पुंडी आँखें बाहर की उस बादलराशि की ओर
ti2 :: मुक्तिदा