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उन्मुख हैं। होठों पर एक मुग्ध स्मित ठहरी है। एक हाथ रेलिंग पर से ऊपर को अंजुली-सा उठा है और दूसरा हाय सहज वक्ष पर थमा है।
"अंजन...!"
अंजना ने चौंककर आँखें खोली, और स्वप्नाविष्ट-सी वह सामने वसन्त को देख उठी। एक अलौकिक मुसकराहट उसके होठों पर फैल गयी-जिसमें गहरी अन्तर्वेदना की छाया थी।
"...अ...हाँ, कब से बैटी हो जीजी, जरा आँख लग गयी थी, पर जगा क्यों नहीं निगा?"
कहते-कहते वह शरपा आयी और उसने एक गहरी अंगड़ाई भरी। उन तन्द्रिल आँखों में उड़ते पंछियों के पंखों का आभास था! अंजना की दृष्टि अपने कक्ष की ओर उठी। शिलाओं और रत्नों की ये दीवारें, यह ऐश्वर्य का इन्द्रजाल, यह वैभव की संकुलता; उसकी यह मोहकता, यह सुखोप्मा, यह निविड़ता!...असह्य हो उठा है यह सब। जीवन का प्रवाह इस गहर में वन्दी होकर नहीं रह सकता। और वह उफनाती हुई शून्य शव्या, जिस पर अनन्त अभाव लोट रहा है ।...प्राण की अनिवार पीड़ा से वक्ष अपनी सम्पूर्ण मांसल मृदुलता और माधुर्व में टूट रहा है, टूक-टूक हुआ जा रहा है। एक इन्द्रियातीत संवेदन बनकर सम्पूर्ण आत्मा मानो दिगन्त के छोरों तक फैल गया है।
कहीं ज्यान की वृक्ष-घटाओं के पार से मयूरों की पुकार सनाई पड़ी। बादल गुरु मन्द्र स्वर में रह-रहकर गरज रहे हैं। घनीभूत जलान्धकार में रह-रहकर बिजली कौंध उठती है।
"जीजी, यह मयूरों की पुकार कहीं से आ रही है ? देखो न वे हमें बुला रहे हैं। अपने वहाँ चल नहीं सकती हैं, जीजी चलेंगी, जरूर चलेंगी। तुम भी मेरे साथ आओगी न? दूर, बहुत दूर, महल और राजोद्यान के पार-विजयार्द्ध की उपत्यका में! मुझे अभी-अभी सपना आया है जीजी, वे वहीं मुझे मिलेंगे, घन कानन की पर्ण-शय्या पर!-इस कक्ष में नहीं, इस पद्म-राग-मणि के पलंग पर नहीं!"
वसन्त खिलखिलाकर हँस पड़ी और बोली- "अंजन, देखती हूँ अभी भी तेरा बचपन गया नहीं है। जब बहुत छोटी थी तब भी ऐसी ही बातें किया करती थी। जो भी उम्र में तुझसे एक ही दो बरस बड़ी हूँ, फिर भी तेरी ऐसी अद्भुत बातें सुनकर मुझे हँसी आ जाती है। बीच में तूं गम्भीर और समझदार हो गयी थी। पर कई बरस बाद तुझे फिर यह विचित्र पागलपन सूझने लगा है।"
"तो जीजी, बताओ न ये पोरों की पुकारें कहाँ से आ रही हैं?"
"पुण्डरीक सरोवर के पश्चिमी किनारे पर जम्बू-वन में खूब मोर हैं। घटाओं को देखकर वहीं वे शोर मचा रहे हैं।"
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भुक्तिदूत :: 3