________________
--
अनायास । महाराज ने चौंककर तिर उठाया। महादेवी माथे पर आँचल खींचती हुई उठ बैठीं । पवनंजय बिलकुल पास चले आये। चुपचाप विनयावनत हो पिता के चरणों में नमन किया। फिर माँ के पैर छुए और पलंग के किनारे बैठ गये। कुमार की ने गर्विणी आँखें उठ नहीं सकीं एक बार भी नहीं। मूर्तियत् जड़ वे बैठे रह गये हैं। हाथ की अंगुलियाँ मुट्ठी में बँध आना चाहती हैं पर बँध नहीं पा रही हैं; वे चंचल हैं और काँप रही हैं। माता और पिता एकटक पुत्र का वह नेहरा देख रहे हैं, जो उस नम्रता में भी दृप्त है। भय और विषाद की गहरी छाया से वह मुख अभिभूत है। मोतियों की हल्की-सी लड़ उन कुटिल अलकों को बाँधने का विफल प्रयत्न कर रही है: एक गहरा जामुनी उत्तरीय कन्धे पर पड़ा है। देह निराभरण हैं; केवल एक महानील मणि का बलय बायीं भुजा पर पड़ा हुआ है
J
पिता ने बालपन से ही कुमार को बहुत माना है। अपार मान-सम्भ्रम के कोड़ में उन्होंने पवनंजय को परवरिश किया है। पवन की इच्छा के ऊपर होकर महाराज की कोई इच्छा नहीं रही है। पवन की हर उमंग ये दोनों हाथों से झेलते थे और उसकी हर अनहोनी माँग को पूरा करने के लिए सारा राजपरिकर हिल उठता था । राजा को पवन में देवता की असाधारणता का आभास होता था और इसीलिए कुमार का कोई भी कृत्य उनके निकट शिरोधार्य था। उसमें मीन-मेष नहीं हो सकती थी पर अंजना-सी वधू का त्यागं ? महाराज की बुद्धि सोचने से इनकार कर रही थी। ' उन्हें विश्वास नहीं हो सकता था कि पवन यह कर सकता है। और यह पवन भी सामने प्रस्तुत हैं। चाहें तो पूछ सकते हैं। नहीं, पर वह उनका बुलावा नहीं आया हैं। पहर रात बीतने पर अन्तःपुर के महल में, वह माँ से मिलने को ही शायद चुपचाप आ गया है।
1
राजा के मन में कोई प्रश्न नहीं उठ रहा है; वे कोई कैफियत नहीं चाहते । उसकी कल्पना भी उन्हें नहीं हो सकती है। बस, वे तो इस चेहरे को देखकर व्यथा से भर आये हैं। इस लाड़ले मुखड़े को, जिसके पीछे न जाने कौन विषम संघर्ष चल रहा है, अपने अन्तर में ढाँक लेना चाहते हैं। दुनिया की नज़रों से हटा लेना चाहते हैं। पर वे अपने को अनधिकारी पाने लगे। उन्हें डर हुआ कि ये कहीं पागलपन में ग़लती न कर बैठें।... नहीं, उनका यहाँ एक क्षण भी ठहरना उचित नहीं। माँ और बेटे के बीच उनका क्या काम बिना कुछ कहे वे एकाएक उठकर चल दिये। रानी ने रोका नहीं। पवनंजय निश्चेष्ट थे
I
माँ का हृदय किनारे तोड़ रहा था, पुत्र का वह गम्भीर, म्लान चेहरा देखकर । बरसों का सोया दूध आज मानों उमड़ा आ रहा है। पिता के अधिकार की सीमा हो तो हो, पर जननी के अधिकार से बड़ा किसका अधिकार है? पर वक्ष का उमड़ाव और भुजाओं का विहल वात्सल्य चपेट-सी खाकर रह जाता है-पुत्र के दृप्त ललाट पर दोनों घनी भौंहों के बीच उठे उस अर्धचन्द्राकार कालागुरु के तिलक पर।
-
58: मुक्तिदूत