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हूँ फिर यहाँ से चला जाऊँगा । राग-ममकार से परे सत्ता की स्वतन्त्रता की प्रतीति जिस पचनंजय ने पा ली है उसके निकट किसी भी पर वस्तु के ग्रहण और त्याग का प्रश्न ही क्यों उठ सकता है: जिस अंजना का ग्रहण उनके निकट अप्रस्तुत है, उसके त्याग की घोषणा करने का मोह उन्हें क्यों हुआ और जिस मंजिल की समाप्ति ये मानसरोवर के तट पर हो चिह्नित कर आये थे इतने दिनों बाद परसों फिर आदित्यपुर नगर में उसे घोषित करने का आग्रह क्यों ? "
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पवनंजय के ललाट की नसें तनी जा रही थीं। अनजाने ही वे मुट्ठियाँ बँध गयीं, भौहें तन गयी। कड़ककर एकाएक
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" पवनंजय की हर भूल उसका सिद्धान्त नहीं हो सकती। और व्यक्ति पवनंजय हर गलती के लिए कैफियत देने को विजेता पवनंजय बाध्य नहीं है। सिद्धान्त व्यक्ति से बड़ी चीज है! मैं व्यक्तियों की चर्चा में नहीं उलझना चाहता । व्यक्ति जीवन अवचेतन के अँधेरे स्तरों में चलता है और देखो प्रहस्त, एक बात तुम और भी जान लो; जिस अपने सखा पवनंजय को तुम चिर दिन से जानते थे, उसकी मौत मानसरोवर तट पर तुम अपनी आँखों के आगे देख चुके हो। उसे अब भूल जाओ यही इष्ट है। और भविष्य में उस पवनंजय की खोज में तुम आए तो तुम्हें निराश होना पड़ेगा
*"
कहकर दोनों हाथ से अभिवादन किया और बिना प्रत्युत्तर को राह देखे पवनंजय सिंहासन से नीचे कूद गये। उसी वेग से सनसनाते हुए दोवानखाना पार किया और आयुधशाला का द्वार खोल नीचे उतर गये ।
प्रहस्त की आँखों में जल भर आया । वह चुपचाप वहाँ से उठकर धीरे-धीरे चला आया।
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महादेवी केतुमती का कक्ष ।
पहर रात बीत चुकी है। महारानी पलंग पर लेटी हैं। सिरहाने एक चौकी पर महाराज चिन्तामग्न, सिर झुकाये बैठे हैं। कुहनी शय्या पर टिकी है और हथेली पर माथा ढुलका हैं। कभी-कभी रानी की अथाह व्यथाभरी आँखों में वे अपने को खो देते हैं। रानी की आँखें प्रश्न बनकर उठती हैं-उत्तर में राजा खामोश आँसू-से ढल पड़ते हैं। इस बेबूझता में वचन निरर्थक हो गया है, बुद्धि गुम है। चारों ओर विपुल वैभव की जगमगाहट परित्यक्त, म्लान और अवमानित होकर पड़ी है। रत्नद्वीपों का मन्द आलोक ही उस विशाल कक्ष में फैला है।
एकाएक द्वार खुला। देखा, पवनंजय चले आ रहे हैं- अप्रत्याशित और
मुक्तिदूत
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