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सुख-दुःख, जन्म-मरण के स्वामी हम-आप हैं। मोह से हमारा ज्ञान-दर्शन आच्छन्न हो गया है; इसी से हम निज स्वरूप को भूल बैठे हैं। अपना स्वामित्व खो बैठे हैं, इसी से यह अधीनता और दयनीयता का भाव है। किसी की गतिविधि दूसरे पर निर्भर नहीं । वस्तुमात्र अपने ही स्वभाव में परिणमनशील है; और मेरी तो क्या बिसात स्वयं तीर्थंकर और सिद्ध भी उसे नहीं बदल सकते..."
" ठीक कह रहे हो पवन! वह तो हमारे ही अज्ञान का दोष है। पिछले कुछ दिनों में तुम जिस गुणस्थान तक पहुँच गये हो वहाँ तक हमारी गति नहीं। सारे सम्बन्धों से परे तुम तो निश्चय- ज्ञानी हा न हो और हम ता साधारण संसारी मानव हैं: राग-कषाय, मोह-ममता, दया करुणा से अभिभूत हैं । तुम सम्यद्रष्टा हो गये हो -- और में मिथ्यात्वों से प्रेरित लोकाचार की व्यावहारिक वाणी बोल रहा हूँ । वह तुम्हारे निकट कैसे सच हो सकती है, पवन मेरी धृष्टता के लिए मुझे क्षमा कर देना "
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इस्पात के कवच में बँधा पवनंजय का यक्ष अभी भी रह-रहकर फूला आ रहा था। मानो भीतर कुछ घुमड़ रहा है जो सीना तोड़कर बाहर आया चाहता हैं। आँखें उसकी लाल हुई जा रही हैं। मस्तक में आकर खून पछाड़ खा रहा है। प्रहस्त का साहस नहीं है कि इस पवनंजय से बैठने को कहे-
"अपनी पहुँच के बारे में मैं किसी का मत सुनने को जरा भी उत्सुक नहीं हूँ। क्योंकि सिद्धि सारं मतामत से परे है। मैं तो पदार्थ की स्वतन्त्र सत्ता की बात कह रहा था । पदार्थ का स्वभाव मेरी पहुँच की अपेक्षा नहीं रखता। वस्तु पर मैं अपने को लादना नहीं चाहता। ममकार से परे हटाकर ही सत्ता के निसर्ग रूप का दर्शन हो सकता है। कहना चाहता हूँ, किसी के भी प्रति दायित्ववान् होना निरा दम्भ है, और मैं उससे छुट्टी चाहता हूँ! स्वयं नहीं बँधना चाहता हूँ, इसी से किसी को बाँधकर भी नहीं रखना चाहता। विजयार्ध की चोटियों को अपने में डुबाकर भी यह आकाश वैसा ही निर्लेप है; और वे चोटियाँ अपने को खोकर भी वैसी ही उन्नत हैं- वैसी ही अम्लान! यही मेरा निस्संग मुक्ति-मार्ग है। कोई इसे क्या समझता है - यह जानने की चिन्ता मुझे जरा भी नहीं है, यह तुम निश्चय जानो, प्रहस्त!"
"और उस निस्संग मुक्ति-मार्ग पर कितनी दूर अपनी जय ध्वजा गाड़कर अभी लौटे हो, पवन ? शायद 'रत्नकूट- प्रासाद' तक पहुँचने के लिए तुम्हें कई दुर्लध्य पर्वत और समुद्रों को पार करना पड़ा है! तुम्हारी यह परेशान सूरत और ये बिखरी अलर्के इस बात की साक्षी दे रही हैं। योद्धा का अभेद्य कवच अपनी जगह पर है, पर माथे पर शिरस्त्राण नहीं हैं और खड्ग यष्टि में खड्ग नहीं है। अंजना पर विजय पा लेने के बाद शायद योद्धा इनकी ज़रूरत से उपरत हो गया है !"
एक ज़ोर के लापरवाह झटके से सिर के बालों को झकझोरकर पवनंजय सिंहासन की पीठ के सहारे जा खड़े हुए और दोनों बाँहों को छत्र के फणा - मण्डल मुक्तिदूत 55
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