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प्रतिहारियां हड़बड़ाकर उटी और अपने-अपने स्थान पर प्रणिपात में नत हो गयों । 'देव पवनंजय की जय' का एक कागल नाद गेंद उठा। उस भव्य दीवानखाने में अनेक स्तम्भों और तोरणों को पार करते हुए तीर के अंग से पवनंजय सीधे उस सिंहासन पर जा पहुंचे, जो उस सिरे पर बीचोंबीच आसीन था। अमूल्य नागमणियों से इस सिंहासन का निर्माण हुआ है। महानीलमणि के बने नागों के विपुलाकार फणा-मण्डल ने इस पर छत्र ताना है। जिसमें गजमुक्ताओं की झालरें लटक रही हैं। सहस-नाग के फना और वराहों की पीट पर यह उठा हुआ है। पैर के पायदान के नीचे चितकबरे पाषाणों के दो विशाल सिंह जबान निकालकर बैठे हैं; और किसी तीन आग्नेय मणि से बनी उनकी आँखें आतंक उत्पन्न करती रहती हैं। सिंहासन की मूल वेदिका के दानों और जो कटघरे बने हैं, उनमें क्रम से सूर्य और चन्द्र की अनुकृतियाँ बनी हैं।
पीछे की दीवार में रनों का एक उच्च वातायन है, जिसमें आदि चक्रवती भरत को एक विशाल सूर्यकान्त मणि की प्रतिभा विराजमान है। उसके पादप्रान्त में चक्र-रत्न नानारंगी प्रभाओं से जगमगाता घूम रहा है।
उधर उदयाचल पर 'अजितजय-प्रासाद' के भा-मण्डल-सा सूर्य उदय हो रहा
छत्र के फणा-मण्डल पर कुहनी रखकर पधनंजय खड़े रह गये। सुदृढ़ प्रलम्बमान देहयष्टि पर कचच और शस्त्रास्त्र चमक रहे हैं। कचित अलकावलि अस्त-व्यस्त विखरी है और उस पर एक कुम्हलाये श्वेत वन्य-फूलों की माला पड़ी है। ललाट पर बालों की एक लट दोनों भौंहों के बीच कुण्डली मारी हुई नागिन-सी झूल रही है; लाख हटाने से भी वह हटती नहीं है।
प्रहस्त चुपचाप पीछे चले आये थे। उन्हें एक हाथ के इंगित से ऊपर बुलाते हुए लापरवाह मुसकराहट से पवनंजय बोले___“आओ प्रहस्त, कुशल तो है न...?"
प्रहस्त ऊपर चढ़कर अपने सदा के आसन पर बैठ गये, धीरे से बोले"साधुवाद पवन ः कुशल तो अब तुम्हारी कृपा के अधीन है। मेरी ही नहीं, समस्त आदित्यपुर के राजा और प्रजा की कुशल तुम्हारे भ्रू-निक्षेप की भिखारिणी बन गयी
प्रहस्त ने देखा पवनंजय के चेहरे पर गहरे संघर्ष की छाया है। वह शुन्य से जूझ रहा है। अपनी ही छाया के पीछे वह भाग रहा है। उसके पैर धरती पर नहीं हैं-वह अधर में हाथ-पैर मार रहा है। वह चट्टानों से सिर मारकर आया है। उसका
अंग-अंग चंचल और अधीर है। अपने भोतर की सारी कशमकश को भौंहों में सिकोड़कर पवनंजय ने उत्तर दिया
"अधीन! अधीन कुछ नहीं है, प्रहस्त। कोई किसी के अधीन नहीं है। अपने
54 :: मुक्तिदूत