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वसन्त से वोला नहीं गया। उसने अंजना का बोलता हुआ मुँह और भी भींचकर छाती में दाब लिया, फिर धीमे से कहा-..
“चुप...चुप...चुप कर अंजनी।"
कुछ क्षण एक गहरी शान्ति कमरे में व्याप गयो। तब अंजना को अपनी गोद पर धीमे से लिटाकर, बसन्त हल्के हाथ से उसके ललाट पर चन्दन-कपूर और मुक्ता-रस का लेप करने लगी।
यह है कुमार पवनंजय का 'अजितंजय-प्रासाद' । राजपुत्र ने अपने चिर दिन के सपनों को इसमें रूप दिया है। अबोध बालपन से ही कुम्पा में एक जिगीया गाना ठी थी-वह विजेता होगा। वय-विकास के साथ यह उत्कण्ठा एक महत्त्वाकांक्षा का रूप लेती गयी। ज्ञान-दर्शन ने सृष्टि की विराटता का वातायन खोल दिया। युवा कुमार की विजयाकांक्षा सीमा से पार हो चली : वह मन-ही-मन सोचता-वह निखिलेश्वर होगा-वह तीर्थकर होगा!
इस महल में कुमार ने अपने उन्हीं सपनों को सांगोपांग किया है। महाराज ने पुत्र की इच्छाओं को साकार करने में कुछ भी नहीं उठा रखा। विपुल द्रव्य खर्च कर, द्धीपान्तरों के श्रेष्ठ कलाकारों और शिल्पियों द्वारा इस महल का निर्माण हुआ
दूर पर विजयार्द्ध की उत्तुंग शृंग-मालाएँ आकाश की नीलिमा में अन्तर्धान हो रही हैं। और उनके पृष्ठ पर खड़ा है यह गर्वोन्नत 'अजितंजय-प्रासाद'-अपनी स्वर्ण-चूड़ाओं से विजयार्थ की चोटियों का मान मर्दन करता हुआ।
पार्वत्य-प्रदेश के ठीक सीमान्त पर, जहाँ से समतल भूमि आरम्भ होती है, एक विस्तृत टीले पर महल बना है। राज-मन्दिर से यहाँ तक आने के लिए विशेष रूप से एक सड़क बनी है। दूसरा कोई रास्ता यहाँ नहीं पहुँच सकता। महल के सामने ऊँचे तनेवाली सघन वृक्षराजियों से भरा एक रम्य उद्यान है। और उसके ठीक पीछे, पादमूल में ही आ लगा है वह पहाड़ियों से भरा बीहड़ जंगल । किसी प्राचीर या मुंडेर से उसे अलग नहीं किया गया है। महल के पूर्वीय वातायन ठीक उसी पर खुलते हैं। कृत्रिम का यह सीमान्त है, और प्रकृति का आरम्भ। ठीक महत की परिखा पर वे भयावनी वन्य-झाड़ियों झुक आयी हैं। महल को चारों ओर से घेरकर यह जो कृत्रिम परिखा बनी हैं, वह देखने में विलकुल प्राकृतिक-सी लगती हैं। बड़े-बड़े भीमाकार शिलाखण्ड और चट्टानें उसके किनारे अस्त-व्यस्त मिखरे हैं, जिनमें पलास और करौदों की घनी झाड़ियाँ उगी हैं। विशद परिखा के अन्दर हरा-नीला पुरातन
5!! :: मुक्ति