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अनेक लता-फूल, वनस्पतियों के द्वार बने थे; ध्वजाओं और वन्दनवारों के सिंगार से नगर छा गया था उस सारी सजावट में एक गहरा सन्नाटा गूँज रहा है। मानो नियति का व्यंग्य - अट्टहास अन्तहीन हो गया है। केवल बड़े-बड़े काँसे के धूप- दानों में जहाँ-तहाँ सुगन्धित धूप का धूम्र मौन मौन लहराता सा उठ रहा है। मन्दिरों के पूजा-पाठ और घण्टा - रव एकाएक मुक हो गये । देवताओं की बीतराग पाषाण प्रतिमाएँ भी अधिक वीतरागता के रहस्य से भरकर मुसकरा उठीं। नागरिकों में चारों और अपार आश्चर्य, निरानन्द और कौतूहल छा गया है।
राज- प्रांगण में गम्भीर आतंक का सन्नाटा फैला है। राजमन्दिरों पर बने विषाद का आवरण पड़ गया है। प्रासादमालाओं के छज्जों पर केवल कबूतरों की गुटुर गुटुर सुनाई पड़ती है, जो उस उदासी को और भी सघन और मार्मिक बना देती है। सिंहपौर पर केवल समय-सूचक नौबत काल के अनिवार चक्र की निर्मम सूचना देती
है ।
मनुष्य की वाणी ही आज मानो अपराधिनी बन गयी हैं। कभी कोई एकाकिनी प्रतिहारी, विशाल राज- प्रांगण को पार कर एक सौध से दूसरे सौध को जाती दिखाई पड़ती हैं। जीवन, कर्म, व्यापार, चेष्टा सब जड़ीभूत हो गया है। चारों ओर फैला है आतंक, अपराव, क्षोभा रोष - समस्त राज-कुल के प्राण विकल पश्चात्ताप से हाय-हाय कर उठे हैं। नागरिकाओं और कुल-कन्याओं के चक्ष में एक शब्दहीन रुलाई गूँज रही हैं। प्राण-प्राण के तटों में जाकर अकल्पित दुःख की यह कथा अशेष हो गयी है ।
यह सब इसलिए कि यह कोई उड़ती हुई ख़बर नहीं थी। यह कुमार पवनंजय द्वारा स्वयं घोषित की गयी घोषणा थी । कुमार की जिस गुप्त प्रतिहारी ने उनकी निश्चित आज्ञाओं के अनुसार इस घोषणा को नगर में फैलाया, उसके पास एक लिखित पत्रिका थी जिस पर कुमार के हस्ताक्षर थे। हवा के वेग से प्रतिहारी घूम गयी। लोग अवाक् रह गये और देखते-देखते प्रतिहारी गायब हो गयी। प्रजा में -श्रुति की तरह यह बात प्रसिद्ध है कि देव पवनंजय की हठ टलती नहीं है: उनका वचन पत्थर की लकीर होता है। फिर वह तो लिपिबद्ध घोषणा थी- जो कुमार ने स्वयं आग्रहपूर्वक प्रकाशित की थी ।
जन-
महादेवी केतुमती के आँसुओं का तार नहीं टूट रहा है। आस-पास आत्मीय, कुटुम्बी, परिजन, दासियाँ बारम्बार सम्बोधन के हाथ उठाकर रह जाते हैं। बोल किसी का फूट नहीं पाता है। क्या कहकर समझाएँ। सब निर्वाकू हैं और हृदय सभी के रुद्ध हैं।
महाराज प्रह्लाद राज- मन्त्रियों के साथ सवेरे से मन्त्रणा - गृह में बन्द हैं। प्रमुख और भीतर से रुद्ध है, घण्टों हो गये नहीं खुला। महाराज ने सबेरे ही स्वयं महामन्त्री सौमित्रदेव को भेजा था कि जाकर वे पवनंजय को लिवा लाएँ। पर महामन्त्री निराश
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