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कोई जल-जन्तु विचित्र स्वर कर उठता है। सरोवर की सतह पर से कोई एकाकी बिछुड़ा पंछी उड़ता हुआ निकल जाता है; पानी छप-उप् बोल उठता है। झिल्ली का रख इस शून्यता के हृदय का संगीत वन गया हैं। कभी-कभी दूर पर, प्रहरी के कट शब्द की ध्वनि, स्तब्धता को भी भयावह बना देता है।
सुहाग-शय्या के सामनेयाले वातायन में अंजना चुप बैठी है। पास के लिंग पर बसन्त खामोश तुष्टी पर हाथ देकर बैठी है। नयी झाली हुई धूप से धूम-लहरियाँ
और भी वेग से उड़ रही हैं। चारों ओर मणि-माणिकों की झलमल आभा में नाना भोग-सामग्रियों दीपित हैं! स्फटिक की चित्रमयी चौकियों पर रत्नों की झारियाँ शोभित हैं। कंचन के शालों में विविध फल और पुष्पहार सजे हैं। अनेक श्रृंगार के उपादानों से भरी रत्न-मंजूषाएँ खुली पड़ी हैं। बसन्तमाला ने कमरे में घूमकर दीपाधारों के दीपों की जोत को और भी ऊँचा उठा दिया। सुहाग-सेज के चारों ओर के धूप-दानों में नवीन धूप डाल दिया। शून्य शय्या में जा-जाकर धन-लहरें विसर्जित होने लगी। सहागिनी की प्रतीक्षा ले आकल नयन आकाश में लौटते ही चले गये...। और तरु-पल्लावों की 'दुल-पल' में तारे खिल-खिलाकर हँस पड़े।
चौंद ठीक सौध के शिखर पर आ गया है। चूड़ा के रत्न-दीप में से कान्ति की नीली-हरी किरणें झर रही हैं। दूर पर कुमार पवनंजय के 'अजितंजय प्रासाद' का शिखर दीख रहा है। उस पर अष्टमी के चक्र चन्द्र-सा अरुण रत्नदीप उद्भासित है। जरा झुककर धीरे से वसन्त ने कहा-"देख रही हो अंजना, वह रतनारी चूड़ा-यही है 'अजितंजय प्रासाद'!" : वसन्त के इंगित पर अनायास अंजना की आँखें उस ओर उठ गयीं। पर दर्प की यह भू-लेखा जैसे वह झेल न सकी। चाहकर भी फिर उम ओर देखने का साहस वह न कर सकी।
काल का प्रवाह अनाहत चल रहा है। जीवन क्षण-पल घड़ियों में कण-कण बिखरकर अवश बह रहा है। यह जो आस-पास सब स्तब्ध-स्थिर दीख रहा है, यह सब उस प्रवाह में सूक्ष्म रूप से अतीत और व्यय हो रहा है; सब चंचल हैं और क्षण-क्षण मिट रहा है, और नव-नवीन रूपों में नव-नवीन इच्छाओं और उच्छ्वासों के साथ फिर उठ रहा है। सब कुछ अपने आप में परिणमनशील है। आत्मा के अन्तराल में चिरन्तन बिछोह की व्यथा निरन्तर घनी हो रही हैं।
कि लो, सिंह-पौर पर तीसरे पहर को नौबत बज उठी। फिर हवा के झोंके में तरु-मालाएँ मर्मरा उठी और तारे फिर खिलखिलाकर हंस पड़े। अन्तरिक्ष में रह-रहकर एक नीरव ध्वनि गूंज उठती है.-'नहीं आये नहीं आये!! नहीं आये!!!" रात ढल रही है। तारे बह रहे हैं, चाँद बह रहा है, बादल बह रहे हैं; आकाश बह रहा है, पृथ्वी बह रही है, हवाएँ बह रही हैं, अन्धकार और प्रकाश बह रहे हैं |
और इसी प्रवाह में चेतना भी अवश बह रही है। पर भीतर संवेदन को एक अखण्ड जोत जल रही है जो इस प्रवाह को चीरकर ऊपर आना चाहती है, परिणमन के
मुक्तिदूत :: 47