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वीणा, मृदंग और जल-तरंग की स्वरावलियों पर समुद्र की लहरों का संगीत उतरने लगा: अन्तर के कितने ही लोक एक साथ जाग उठे। वायु की तरंगों-सी वे तन्चंगी बालाएँ, संगीत के तालों पर, शुन्य में चित्र बनाने लगी। अर्ध उन्मीलित नयनों से, देहयष्टि को अनेक भंगियों में तोड़कर, उन्होंने हाथ जोड़कर अपने आपको निवेदित किया। देह का सारा स्थूल रूप-लावण्य सौन्दयं की कुछ ही सूक्ष्म रेखाओं में सिमटकर जाज्वल्य हो उठा। 'बादल-बेला', 'मयूरी-नृत्य', 'वसन्त-लीला', 'अनंग-पूजा', 'प्रणयाभिसार', 'सागर-मन्यन' आदि अनेक नृत्य क्रमशः वे बालाएँ रचती गयीं।
अंजना की की मार गया और संगीत का मुर्छना में विभोर हो आँखें । मूंद लेती और कभी आकाश की ओर दृष्टि उठाये अपने हाथ के लीला-कमल को उँगलियों के बीच नचाती हुई ग्रह-नक्षत्रों की गतियों से खेलने लगती। एकाएक उसकी नजर केलि-सरोवर के जल में पड़ते तारों के प्रतिबिम्ब पर जा पड़ती। इंषत . झुककर हाथ के लीला-कमल से वह जल की सतह को झकझोर देती । ग्रह-नक्षत्रों के बिम्ब उलट-पलट हो जाते। यह खिलखिलाकर हँस पड़ती। पास खड़ी सखियाँ अचरज में भरी देखती रह जाती। कभी अंजना की वे लीलावित भौहें कॉचत हो जाती तो कभी गम्भीर! तो कभी एक निर्दोष कौतुक ते वह मुसकरा देती। मानो आज नियति से ही विनोद करने को वह उतर पड़ी हैं।
सिंहपौर पर नौबत बज उठी। रात का दूसरा पहर आरम्भ हो गया। सामने दृष्टि पड़ी-गुलाबी कंचुकियों से बँधे उभिन्न वक्ष देश पर, हाथों की अंजुलियों में सर्वस्व उत्सर्ग करती हुई, मुद्रित-नयन बालाएँ समपंण के भंगों में नत हो गयीं। मंजीरों को रणकार नीरव हो गयी। संगीत की डूबती हुई सुरावलियाँ दिशाओं के उपकूलों में जाकर सो गयीं। एक-एक कर सब बालाएँ तिरोहित हो गयीं।
अटारी के दक्षिणवाले रेलिंग पर अंजना और वसन्त खड़ी हैं-छायामूर्तियों-सी मौन। विशाल राजप्रांगण के चारों ओर सन्नाटा छा गया है। नीरवता सघन हो रही है। आकाश के असंख्य तारों की उत्सुक आँखें इस छत पर टकटकी लगाये हैं। चारों ओर निस्पन्द, अपतक प्रतीक्षा बिछी है। उद्यान की यन-राजियों में से, केलि-गृहों के द्वारों में से, नारिकेल-बन के अन्तरालों से, लता-मण्डपों के द्वारों से, सरोवर तर के कदली और माधवी-कुंजों से, देव-मन्दिरों के शिखरों पर से, सौधमालाओं की चुट्टाओं से-मानो कोई आनेवाला है: अन्धकार में से कोई छाया-मति आती दिखाई पड़ती है और फिर कहीं छाया चाँदनी की आँखमिचौली में खो जाती है। दक्षिण समीर के अलस झोंके में ज़रु-मालाएँ मर्मरित होती रहती हैं। वह शून्यता और भी निबिड़, और भी गम्भीर हो जाती हैं। ___'पुण्डरीक' सरोवर के गुल्मों में से कभी कोई एकाकी मेंढक टरटरा उठता है,
46 :: मुक्तिदूत