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"लो, चाँद निकल आया-ठहरो मैं बीन लाती हूँ। आज वसन्त गाएगी और तुम सब जनियाँ नाचने के लिए पायल बाँधो।"
सती-बलखाती अंजना, चंचल बालिका-सी झपटती हुई अपने कक्ष में बीन लेने चली गयी। उधर सखियों की हंसियों ले वातावरण तरल हो उठा। छूमछनन् घुघरू बज उठे।
पर मणि-मक्ता की झालरों की ओट के उस झरोखे में?...पुरुष के अहंदर्ग की बुनियादें हिल उठी! और फिर पवनंजय तो विजेता का गर्व और चुनौती लेकर आये थे। उनकी भुजाओं में दिग्विजय का आलोड़न था। देश और काल के प्रवाह के ऊपर होकर जो मार्ग गया है-उसके वे दावेदार थे। इसी से तो ऋषभदेव की निर्वाण-भूमि पर आकर भी उनका मन चैन नहीं पा सका है। वे तो उस निर्वाण का पता पाना चाहते हैं। पुरुष के गर्व के उस शिखर पर से, मानवी नारी के मौन समर्पण की कथा वे कैसे समझ पाते?
और ऐसा विजेता जब नारी के प्रणय-द्वार पर आकर अनजाने ही अपने 'मैं' को हार बैठा, तब उसकी ऐसी अवज्ञा? मिश्रकेशी ने कुमार पवनमय के लिए निदारुण अपमान के वचन कहे और अंजना वैसी ही चुप मुसकराती हुई सुनती रही? उसने उसका कोई प्रतिकार नहीं किया और तब एकाएक उसे सूझा नृत्य-गान और वीणा-वादन! विद्युतप्रभ के प्रताप की बात सुनकर यह सुख से ऐसी चंचल हो उठी? और पवनंजय उसके सम्मुख इतना तुच्छ ठहर गया कि उसकी निन्दा-स्तुति से जैसे अंजना को कोई सरोकार की - य के सारे 11 को भेदकर वह आघात मर्म के अन्तिम 'मैं' पर जा लगा। वह 'मैं' भीतर-ही-मोतर नग्न होकर ज्वाला-सा दहक
उठा।
कुमार ने प्रहस्त को चलने का इंगित किया, और उत्तर के लिए ठहरे बिना ही विमान में जा बैठे। क्रोध से उनका रोम-रोम जल रहा था, पर उस सारी आग को वे एक यूंट में उतारकर पी गये। फूट पड़ने को आतुर होठों को उन्होंने काटकर दबा दिया। आज तक उन्होंने प्रहस्त से कोई बात नहीं छिपायी थी-पर आज, आज तो उसका विजेता भू-लुण्ठित हो गया था। यह उसके पुरुष की चरम पराजय की मर्म-कथा थो!
प्रहस्त से रहा न गया। उसने वह क्षुब्ध मोन तोड़ा-“देख आये पवन, यह है तुम्हारे उस परिचयहीन चिर आकर्षण की सीमा-रेखा! आदित्यपुर की भाषी राजलक्ष्मी को पहचान लिया तुमने?"
पवनंजय अलक्ष्य शून्य में दृष्टि मड़ाये हैं। सुनकर भवें कुंचित हो आयीं। छिन भर ठहरकर बोले
"प्रास्त, संसार की कोई भी रूप-राशि कुमार पवनंजय को नहीं बाँध सकती। सौन्दर्य की उस अक्षय धारा को मांस की इन क्षायक रेखाओं में नहीं बाँधा जा
32 :: मुक्तिदूत