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गोरोचन और चन्दन से तथा स्तनों पर कालागुरु से वसन्तमाला ने पत्र-लेखा रची हैं। मृणाल-तन्तुओं में लाल कमल के दलों को बुनकर बनायी गयी कंचकी पद्म-कोरकों से उद्भिन्न वक्ष-देश पर बाँध दी गयी। कलाइयों पर मणि-कंकण और फूलों के गजरे' पहनाये गये और भुजाओं पर रत्न-जटित भज-बन्ध बाँधे गये। गले में चेंडूर्य-मणि का एक अति महीन चाँदनी-सा हार धारण कराया गया। देह पर श्वेत-नील लहरिये का हल्का-सा रेशमी दुकूल पहना और पैरों में मणियों के नूपुर झनझना उठे।
वैशाख की पूर्णिमा का युवा चन्द्र, तमाल के वनों से ऊपर उठक्कर, सम्पूर्ण कलाओं से मुसकरा उठा। अपनी सारी पीली मोहिनी नवोढ़ा अंजना को सौंपकर अब वह उज्वल हो चता हैं। सुर दंब-मन्दिरों के धवल शिखर पर आकर वह कुछ ठिठक गया है। मानो आज वह सहागिनो अंजना का दर्पण बन जाना चाहता है। जयमाला जब दपण लेकर सामने आयी, तो अंजना ने सम्भ्रमपूर्वक गरदन घुमाकर चाँद की ओर देखा और मुसकरा दिया। कपोल-पाली में फैली हुई स्मित रेखा, उन आँखों के गहन कजरारे तटरों में जाने कितने रहस्यों से भरकर लीन हो गयी।
शयन-कक्ष के झरोखों से दशांग धूप की धून-लहरें आकर बाहर चाँदनी की तरलता में तैर रही हैं। अंजना के केशों पर आकर मानो बे सपनों के जाल बुन रही
थोड़ी ही देर में शृंगार सम्पन्न हो गया। दूसरी ओर के केलि-सरोवर के पास दासियों ने प्रयाल के हिण्डोलों को पुष्प-मालाओं से छा दिया । चारों ओर धिरी सखियों के हास-परिहात्त, विलास-विभ्रम और चंचल कटाक्षों के बीच अंजना अपनी सारी शोभा को समेट अपनी दलकी पलकों की कोरों में लीन हो रही है। अपनी ही सौरभ से मुग्ध पद्मिनी जैसे झुककर अपने ही अन्तर की आकुल कर्मियों में अपना प्रतिविम्य देख रही हो।
इन्द्रनील शिला के फर्श में जिस बाला की परछाई पढ़ रही है, उसे अंजना पहचान नहीं पा रही है। किस आत्मीय-जनहीन सागरान्त की वासिनी है यह एकाकिनी जलकन्या और लो, वह छाया तो खोयी जा रही है; अनन्त लहरों में, नाना भंगों में टूटकर वह छवि दिगन्तों के भी पार हो गयी है। अंजना का समस्त प्राण उस बाला के लिए अथवा करुणा-व्यथा से भर आया है। चाँदनी के जल से आकुल दिशाओं के सभी छोरों पर वह उसे खोजती भटक रही है। पर जहाँ तक दृष्टि जाती है, चंचल लहरों के सिवा कहीं और कुछ नहीं है। लहरें जो टूट-ट्रटकर अनन्त में बिखर जाती हैं। सारे ग्रह-नक्षत्र छवि की इन तरंग-मालाओं में चूर-चूर होकर बिखर रहे हैं। जन्म और मरण से परे मुक्ति के भँवरों पर आत्मोत्सर्ग का उत्सव हो रही है। देश और काल की परिधि निश्चित हो गयी है। सुख-दःख, आनन्द-विषाद की सीमा तिरोहित हो गयी है।
मुक्तिदूत :: ४